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________________ उपासकाध्ययन १६५ ४२४ ] इति च विचिन्त्य मकरकेतुवशव्यापार निधिः प्रवृत्तदुरभिसन्धिः पुरुषप्रयोगेणाभिमेतसिद्धिमनवबुध्यमानः पराशयशैलविदारणतडिल्लतामिव तडिल्लतां नाम धात्रीं अपर्डेक्षीणे शरणे सुनयार्यं तनपतनादिभिः पादपतनादिभिः प्रश्रयैरसदाशयाश्रयैरर्वन्ध्य साध्यमुपरुध्य स्वकी - याकूतकान्तारप्रवर्धनधरित्रोमं करोत् । तदुपारोधातथाविधविधिविधात्री धात्रो - (स्वगतम्) 'परपरि ' ग्रहो ऽन्यतरानुरागग्रहश्चेति दुर्घटप्रतिभासः खलु कार्योपन्यासः । श्रथवा सुघट एवायं कार्यघटः । यतस्तप्तातप्तवयसोरयसोरिव चेतसोः साङ्गत्याय खलु पण्डितैदत्यं दौत्यमन्यथा सेरसतरसोरम्भसोरिव द्वयोरपि द्रवस्वभावयोरेकी करणे किं नु नाम प्रतिभाविजृम्भितम् । किं च । सा दूतिकाभिमतकार्यविधौ बुधानां चातुर्यवर्य वचनोचितचित्तवृत्तिः । "चुम्बक पलकलेवहि शल्य मन्त १७ श्वेतोनिरूढमपरस्य बहिष्करोति ||४२४|| तदलं विलम्बेन । परिपक्वफलमिव न खलु व्यतिक्रान्तकालमदः " सरे सताधिष्ठान - मनुष्ठानम् । किं त्वस्य साहसावलम्बनधर्मणः कर्मणः सिद्धावसिद्धौ वा दैवात्परेङ्गिताकारसर्वत्रैः प्राशैः कथमपि बहुजनावकाशे कृते सति पुरश्वारी हि शरीरी भवति दुरपवाद ऐसा विचारते हुए उसने कामसे पीड़ित होकर दुष्ट संकल्प किया । बलात्कारके द्वारा अपने मनोरथकी सिद्धि न होती जानकर उसने दूसरेके अभिप्रायरूपी पर्वतको भेदने में बिजलीकी तरह कुशल तडिल्लता नामकी धायको उसके पास भेजनेका विचार किया । और एकान्त गृहमें नीतिवानों को भी मार्ग भ्रष्ट करनेवाले पैरों पर गिरना आदि दुर्जनोंके द्वारा आश्रय की जानेवाली विनयके द्वारा उसे अपना मनोरथ सिद्ध करने के लिए तैयार किया । उसके अति आग्रहसे उस कार्यका भार लेकर धाय सोचने लगी- - ' पर - नारी और किसी दूसरे प्रेमको जुटाने का कार्य बड़ा कठिन प्रतीत होता है । अथवा यह कार्य सरल ही है; क्योंकि तपे हुए और बिना तपे हुए लोहोंके समान दो चित्तोंको मिलानेके लिए पंडित जन जो कुछ प्रयत्न करते हैं वही तो वास्तवमें दौत्य है । अन्यथा वेगसे बहनेवाले दो जलों की तरह दो तरल हृदयों को 'मिलाने में क्या बुद्धिमानी है ?' तथा वही दृती इष्ट कार्यको करने में चतुर कहलाती है, जो चुम्बक पत्थरकी तरह दूसरे के मनके भीतर के शल्यको बाहर निकाल लेती है ॥४२४ ॥ अतः इस कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए। जैसे समय बीत जानेपर पका फल भी सरस नहीं रहता वैसे ही समय बीत जानेपर सुकर काम भी दुष्कर हो जाता है । किन्तु यह कार्य बड़े साहसका है भाग्यवश यह सिद्ध हो या न हो किन्तु दूसरेके अभिप्रायको जानने में सर्वज्ञ विद्वान् भी यदि ऐसे कार्यको बहुतसे मनुष्योंके सामने करें तो दूत निन्दाका पात्र तो बनता ही है, साथ १. बलात्कारेण । २. - मतकार्यघटना सिद्धि — आ० । ३. विद्युत् । ४. न सन्ति षट् अक्षीणि यत्रतृतीयागोचरे । ५. गृहे । ६. सुनयायतनस्य पतनं गमनमदन्ति विनाशयन्तीत्येवं शीलानि तैः । ७. विनयैः । ८. सफल । अवन्ध्य साध्यमिति क्रियाविशेषणम् । ९. अभिप्रायवन । १० भूमिप्रायाम् । ११ तस्याग्रहात् । १२. कर्त्री । १३. कलत्रम् । १४. यत् क्रियते तदेव दूतत्वम् । १५. द्रवीभूतवेगयोः । १६. चुम्बकपाषाण । १७. पक्षे लोहादिकम् । १८. कार्यम् । १९. यथा पक्वं फलं अतीतकालं सरसं न भवति । २०. दूतः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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