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________________ -३६५ ] उपासकाम्ययन 'न व्रतमस्थिग्रहणं शाकपयोमूलभैक्षवर्या वा । व्रतमेतदुन्नतधियामङ्गीकृतवस्तुनिर्वहणम् ॥३६५॥ इति च विमृश्य निरयनिदानदत्तं चरमपक्षमेव पक्षमाप्सीत्। तदनु मुमुदिषमाणारविन्दहृदयविनिद्रेन्दिन्दिरचरणप्रचारोदश्चन्मकरन्दसिन्दूरितनारदेवतासीमन्तान्तराले प्रभातकाले, सेवासमागतसमस्तसामन्तोपास्तिपर्यस्तोत्तंसकुसुमसंपादितोपहारमहीयसि च सति सदसि मृगयाव्यसनव्याजशरव्यीकृते कुरङ्गपोते, अपराद्धेषुरिघुप्रत्यावृत्यासादितस्पर्शमात्रावसेयाकाशस्फटिकघटितविलसनं सिंहासनमुपगत्य 'सत्यशौचादिमाहात्म्यादहं विहायसि गतो जगदव्यवहारं निहालयामि' इत्यात्मनात्मानमर्कवाणो विवादसमये तेन विनतवरदेन नारदेन 'अहो, मृषोद्योद्भिदविभावसो वसो, अद्यापि न किञ्चिन्नत यति तत्सत्यं ब्रूहि' इत्यनेकशः कृतोपदेशः काश्यपीतलं यियासुर्वसुः'नारद, यथैवाह पर्वतस्तथैव सत्यम्' इत्यसमीक्ष्यं साक्ष्यं वदन् 'देव, अद्यापि यथायथं वद यथायथं धद' इत्यालापबहुले समन्युमानसविलासिनीस्खलितोक्तिलोहले विषादासादिहृदयप्रजाप्रजल्पकाहले स्फुटब्रह्माण्डखण्डध्वनिकुतूहले समुच्छलति परिच्छदकोलाहले सत्यधर्मकर्मप्रवर्तनकुपितपुरदेवतावशदुर्विलसनः ससिंहासनः क्षणमात्रमप्यनासादितसुखहोता हूँ।' इस प्रकार उसका मनरूपी मृग द्विविधारूपी सिंहके फेरमें पड़ गया । बहुत देर तक विचार करनेके बाद उसने सोचा हड्डीका धारण करना, शाक, पानी, कन्दमूलका लेना अथवा भिक्षा भोजन करना ये सब व्रत नहीं हैं । किन्तु स्वीकार की हुई वस्तुको निबाहना ही समझदार पुरुषोंका व्रत है ।।३९५।। ऐसा विचार कर उसने नरकमें ले जानेवाले दूसरे पक्ष को ही स्वीकार कर लिया। एक बार एक शिकारी जंगलमें शिकार खेलनेके लिये गया था वहाँ उसने एक हरिणके बच्चेपर तीर चलाया। किन्तु वह तीर किसी वस्तुसे टकराकर लौट आया। तब शिकारीको बड़ा आश्चर्य हुआ और वह इसका कारण जाननेके लिए आगे बढ़ा। मार्गमें उसे आकाशकी तरह स्वच्छ स्फटिकमणिकी एक शिला मिली, जो छूनेसे ही जानी जा सकती थी। उस शिलाको मँगाकर वसुने अपनी सभामें रखा और उसपर अपना सिंहासन रखवाया। तथा उसपर बैठकर अपने ही मुखसे अपनी प्रशंसा करते हुए यह घोषणा की कि मैं 'अपने सत्य धर्मके प्रभावसे आकाशमें बैठकर जगत्का न्याय करता हूँ।' दूसरे दिन प्रभात होनेपर राजसभा लगी। वस अपने उसी सिंहासनपर आकर बैठ गया। सेवाके लिए आये हुए सामन्तोंने भेटें चढ़ायीं। और विवाद प्रारम्भ हुआ। नारदने विनय पूर्वक कहा-'असत्यवादी वसु अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है अतः सच बोल,' बार-बार समझानेपर भी नरकगामी वसुने यही कहा–'जो पर्वत कहता है वही सत्य है' । इस प्रकार झूठी गवाही देते देखकर प्रजाको भी क्रोध आ गया और वह भी चिल्लाने लगी- 'महाराज ! 'अब भी सच बोलिए,', 'अब भी सच बोलिए।' सभामें ऐसा कोलाहल मचा मानो ब्रह्माण्डके फटनेकी आवाज है। इसी समय सत्य धर्म-कर्मका लोप करनेके कारण क्रुद्ध हुए नगर-देवताने सिंहासन-सहित १. साक्षिवचनम् । २. अलोचकार । ३. विकसमानपामध्य-उच्छ्रीयमाणभ्रमरचरण । ४. जलदेवता । ५. लक्ष्यच्युतबाणः । ६. बाण पश्चाद्वलनेन । ७. न्यायं पश्यामि। ८. उत्कर्षतां प्रापयन् । ९.विनतानां विनेयानाम् । १०. नाशं यास्यति । ११. सकोपचित्त । १२. अव्यक्तवचन । १३. अस्फुटे । १४. मत्यलोक । १५. अप्राप्त । २४
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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