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________________ ८८ सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो० ३६६ कालं पातालमूलं जगाहे । अत एवाद्यापि प्रथममाहुतिषेलायां प्रजो जल्पन्ति–'उत्तिष्ठ वसो, स्वर्गे गच्छ' इति । भवति चात्र श्लोकः अस्थाने बद्धकक्षाणां नराणां सुलभं द्वयम् । परत्र दुर्गतिदीर्घा दुष्कीर्तिश्चात्र शाश्वती ॥३६६॥ इत्युपासकाध्ययने वसो रसातलासादनो नामैकोनत्रिंशः कल्पः। नारदस्तमेव निर्वेदमुररीकृत्य नर्तविभ्रमभ्रमरकुलनिलयनीलोत्पलस्तूपमिव कुन्तलकलापमुन्मूल्य परमनिष्किञ्चनतानिरूपं जातरूपमास्थाय सकलसत्त्वाभयप्रदानामृतवर्षाधिकरणं संयमोपैकरणमाकलेय्य मुक्तिलक्ष्मीसमागमसंचारिकाभिवोदकपरिचारिकामाहत्य शिवश्रीवशीकरणाध्यायमिव स्वाध्यायमर्नुबद्धय मनोमर्कटक्रीडाप्रकाममिन्द्रियाराममुपरम्य अन्तरात्महेमाश्मेसेमस्तमलदहनं ध्यानदहनमुहीप्य संजातकेवलस्तत्पदाप्तिपेशलो बभूव । पर्वतस्तु तथा सर्वसभासमाजोदीरितोहीर्घदुरपवादरजसि मिथ्यासाक्षिपक्षविचक्षणवक्षसि दुराचारक्षणषुभितसहस्राक्षाचरीक्षितजीवितमहसि कथाशेषतेजसि "वसौ सति मेहस्वहीणतया पौरापचिकीर्षयों च निरन्तरोदश्वरोमाञ्चनिकायः शललेशलाकानिकीर्णकाय इव निजागणेयदुरीहितामा तोदरचर्मपुटः स्फुटभिव च तैर्नृपतिविनाशवशामर्षिभिः संभूयोपदिष्टलोष्टवर्षिभिरतुच्छपिछोलेदलास्फालनप्रकर्षिभिः प्रतिघातोच्छलच्छकलकषाप्रहारतर्षिभिवसुको पातालमें भेज दिया। इसीसे आज भी यज्ञमें पहली आहुति देते समय ब्राह्मणजन कहते हैं-'वसु उठ ! स्वर्ग जा।' किसीने ठीक ही कहा है- 'झूठी बातका दुराग्रह करनेवाले मनुष्योंके लिए दो चीज सुलभ हैं-परलोकमें दीर्घकाल तक दुर्गति और इस लोकमें स्थायी अपयश' ॥३९६॥ इस.प्रकार उपासकाध्ययनमें वसुकी रसातल-प्राप्तिको बतलानेवाला ___ उनतीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। इस घटनासे नारदको बड़ा वैराग्य हुआ। उसने केशलोंच करके नग्न दिगम्बर होकर सकल जीवोंको अभयदान देनेवाले संयमके उपकरण पीछी और कमण्डलु ग्रहण कर लिये । और स्वाध्यायपूर्वक, मनरूपी बन्दरके खेलनेके स्थान इन्द्रियरूपी उपवनको बन्द करके, अन्तरात्मारूपी स्वर्णपाषाणके समस्त मलको जलानेमें समर्थ ध्यानरूपी अग्निको प्रदीप्त किया। तथा केवलज्ञान प्राप्त करके मुक्त हो गया। राजा वसुके मर जानेपर अत्यन्त लजा तथा पुरवासी जनोंके तीव्र तिरस्कारके कारण पर्वतको क्रोधसे रोमांच हो आया। उसे ऐसी पीड़ा हुई मानो सेहीके काँटोंसे उसका शरीर बीधा गया है। अपने असंख्य दुष्ट संकल्पोंके कारण उसका पेट फटने-सा लगा। उधर नगरवासी लोग राजाकी मृत्युसे ऋद्ध होकर उसके ऊपर ईंट-पत्थरोंकी वर्षा करने लगे। उन्होंने उसे गधेपर चढ़ाकर समस्त नगरमें घुमाया । पीछे-पीछे कुत्ते भोंकते जाते थे। ईट-पत्थरोंकी वर्षा होती जाती थी। मार्गमें उल्टे उस्तरेसे सिर मुंडा जाता था। गलेमें फूटे ठीकरोंकी माला पड़ी थी। चाण्डालके १. सप्तमनरकम् । २. प्रप्रा अ०, ज० । विप्राः । ३. स्त्री। ४. मयूरपिच्छम् । ५. गृहीत्वा । ६. दूतो। ७. कमण्डलुम् । ८. परिच्छेद । ९. कृत्वा । १०. यथेष्टम् = अधिकम् । ११. सुवर्णपाषाण । १२. मोक्ष । १३. किङ्करीभिः क्षितं विध्वस्तं जीवितमेव महस्तेजो यस्य । १४. वासो-अ०, ज०, मु० । १५. दीर्घलज्जिततया । १६. अपकर्तुमिच्छया। १७. सेहीशूलविद्धशरीरः । १८. असंख्य । १९. संघुक्षित । २०. वंश ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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