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________________ १८४ सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो० ३६४. पर्वतः-नारद, नेदमस्तुकारं' यदस्य पदस्य मन्निरुक्त पवातिसूक्तोऽर्थः। यदि चायमन्यथा स्यात्तदा रसवाहिनीखण्डनमेव मे दण्डः' । नारदः-'पर्वत, को नु खल्वत्र विवदमानयोरावयोनिकषभूमिः' । पर्वतः-'नारद, वसुः'। कर्हि तर्हि तं समयानुसतव्यम् । इदानीमेव नात्रोद्धारः' इत्यभिधाय द्वावपि तौ वसुं निकषा प्रास्थिीताम् , ऐक्षिषातां च तथोपस्थितौ तेन वसुना गुरुनिर्विशेषमाचरितसम्मानौ यथावत्कृतकशिपुविधानौ विहितांचितोचितकाञ्चनदानौ समागमनकारणमापृष्टौ स्वाभिप्रायमभाषिषाताम् । वसुः-'यथाहतुस्तत्रभवन्तौ तथा प्रातरेवानुतिष्ठेयम्'। अत्रान्तरे वसुलक्ष्मीक्षयक्षपेव क्षपायां सा किलोपाध्याया नारदपक्षानुमतं क्षीरकदम्बाचार्यकृतं तद्वाक्यव्याख्यानं स्मरन्ती स्वस्तिमती पर्वतपरिभवापायबुद्धया वसुमनुसृत्य 'वत्स वसो, यः पूर्वमुपाध्यायादतर्धानापराधलक्षणावसरो वरस्त्वयादायि, स मे संप्रति समर्पयितव्यः' इत्युवाच। सत्यप्रतिपालनासुर्वसुः-'किमम्ब, संदेहस्तत्र। यद्येवं यथा सहाध्यायी पर्वतो वदति, तथा त्वया साक्षिणा भवितव्यम्'। वसुस्तथा स्वयमाचार्याण्याभिहितः-'यदि साक्षी भवामि तदावश्यं निरये पतामि। अथ न भवामि तदा सत्यात्प्रच. लामि' इत्युभयाशयशार्दूलविद्रुतमनोमृगश्चिरं विचिन्त्य पर्वत-नारद ! मैं इसे स्वीकार नहीं कर सकता, क्योंकि इस पदका मेख कहा हुआ अर्थ ही ठीक है । यदि वह ठीक न हो तो मैं अपनी जिह्वा कटवा दूंगा। नारद-पर्वत ! हमारे विवादका फैसला कौन करेगा ? पर्वत–वसु । नारद-तो उसके पास कव चलना चाहिए ? पर्वत—इसी समय । इसमें विलम्ब क्यों ? इस प्रकार बातचीत करके दोनों वसुके पास चल दिये। वसुने जैसे ही उन दोनोंको आते हुए देखा, गुरुके समान ही उनका सम्मान किया और यथायोग्य भोजन, वस्त्राभरण तथा स्वर्ण प्रदान करके उनसे आनेका कारण पूछा। दोनोंने अपना-अपना अभिप्राय कह दिया । वसुने उनसे सुबह आनेके लिए कहा। - इसी बीचमें पर्वतको माता स्वस्तिमती गुरुवानीको अपने पति क्षीरकदम्बके द्वारा बतलाया हुआ उस वाक्यका व्याख्यान स्मरण हो गया। उसे लगा कि नारदका व्याख्यान ही ठीक है। अतः पर्वतके अनिष्टकी आशंकासे वह रात्रिमें ही वसुके पास गयी और बोली-'पुत्र वसु ! पहले गुरुसे छिपनेका अपराध करनेके समय तुमने मुझे जो वर दिया था वह मुझे अब दो।' सत्यका पालक वसु बोला-'माता ! उसमें सन्देह मत करो।' 'तो जैसा तुम्हारा गुरुपुत्र कहता है वैसा ही तुम्हें भी कहना चाहिए।' गुरुपत्नीके ऐसा कहनेपर वसु विचारमें पड़ गया-'यदि पर्वतका कथन ठीक ठहराता हूँ तो नरकमें गिरता हूँ। और यदि नहीं ठहराता हूँ तो सत्यसे विचलित १. न युक्तम् । २. जिह्वा । ३. न विलम्बः। ४. समीपम् । ५. प्रस्थितौ । ६. भोजनाच्छादनौ । ७. विहितोचितोचित मु०। ८. तिरोधान । ९. प्रार्थितः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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