SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -३६४] उपासकाध्ययन १८३ स्वर्गलथमोसपक्षां दीक्षामादाय निखिलागमसमीक्षां शिक्षामनुश्रित्य चातुर्वर्ण्यश्रमणसङ्घसंतोषणं गणपोषणमात्मसात्कृत्य एकत्वादिभावनापुरस्कारमात्मसंस्कारं विधाय कायकषायकर्शनां सल्लेखनामनुष्ठाय निःशेषदोषालोचनपूर्वकाङ्गविसर्गसमर्थमुत्तमार्थे च प्रतिपद्य सुरसुखकृतार्थो बभूव । पूर्वमेव तदादेशादात्मदेशोपदेशदः सकलसिद्धान्तकोविदो नारदः सद्गुणभूरेः क्षीरकदम्बसूरेः प्रव्रज्याचरणं स्वर्गावरोहणं चावगत्य 'गुरुवद्गुरुपुत्रं च पश्येत्' इति कृतसूक्तस्मरणः । पर्योत्ततदाराधनोपकरणस्तद्विरहदुःखदुर्मनसमुपाध्यायानीं जननीं सहपांसुक्रीडितं पर्वतं च द्रष्टुमागतः। अपरेधुस्तं पर्वतम् 'अजैर्यष्टव्यम्' इति वाक्यम् 'अजैरजात्मजैर्यष्टव्यं हव्यकव्यार्थों विधिविधातव्यः' इति श्रद्धामात्रावभासिभ्योऽन्तेवासिभ्यो व्याहरन्तमुपश्रुत्यवृहस्पतिप्रज्ञःपर्वत, मैवं व्याख्यः। किंतु 'न जायन्त इत्यजा वर्षयप्रवृत्तयो व्रीहयस्तैर्यष्टव्यं शान्तिपौष्टिकार्था क्रिया कार्या' इति परीयेवाचार्यादिदं वाक्यमेवमश्रौवं परुत्सजूंस्तथैवाचिन्तयाव । तत्कथमैषम एव तव मतिर्दापरवसतिः समजनीति बहुविस्मयं मे मनः । प्राचार्यनिकेत पर्वत, यद्येवमाश्वीनेऽप्यर्थाभिधाने भवानपरेवानपि 'विपर्यस्यति, तदा पराधीने माहविधीने को नाम संप्रत्ययः'। समान केशोंका लोंच करके उसने स्वर्गरूपी लक्ष्मीकी सखी जिन-दीक्षा ले ली। तथा समस्त शास्त्रोंकी शिक्षाका अनुसरण करके आचार्य पदको सुशोभित किया और श्रमण संघका पालन करके जब भायु थोड़ी शेष रह गयी, तब एकत्व आदि भावनाओंसे आत्माको सुसंस्कृत करके काय और कषायकी सल्लेखनारूप समाधिमरण धारण किया। तथा अपने समस्त दोषोंकी आलोचना पूर्वक शरीरको त्याग कर देवलोकमें उत्पन्न हुआ। गुरुकी आज्ञासे नारद पहले ही अपने देशकी ओर चला गया था। समस्त सिद्धान्तके पण्डित नारदने जब गुणोंसे भूषित आचार्य क्षीरकदम्बके दीक्षा ग्रहण और स्वर्गारोहणके समाचार सुने तो उसे 'गुरुके समान ही गुरु-पुत्रको मानना चाहिए' इस सूक्तिका स्मरण हो आया। और वह उनकी भेंटके लिए बहुत-सा सामान साथ लेकर गुरुके वियोगसे दुःखी गुरुपत्नी और एक साथ खेले हुए मित्र पर्वतको देखने के लिए आया । दूसरे दिन नारदने सुना कि पर्वत श्रद्धालु छात्रोंको 'अजैर्यष्टव्यम्' का अर्थ 'बकरोंसे यज्ञ और श्राद्ध करना चाहिए' ऐसा बतला रहा है । नारदने रोका-'पर्वत ! ऐसी व्याख्या मत करो । किन्तु 'अज' अर्थात् जो उग न सकें ऐसे तीन वर्षके पुराने धान्यसे शान्ति आदि क्रिया करनी चाहिए' ऐसा अर्थ करो। क्योंकि परार साल आचार्यसे हम दोनोंने इस वाक्यका यही अर्थ सुना था, और गत वर्ष हम दोनोंने ऐसा ही विचार भी किया था। न जाने इसी वर्ष तुम्हारी मति संशयमें क्यों पड़ गयी है ? मुझे यह देखकर बड़ा अचरज हो रहा है। पर्वत ! तुम आचार्यका काम करते हो । यदि तुम स्वतन्त्र होकर भी इस अर्थके करनेमें भूलं करते हो तो मेरे समान पराधीनका ही क्या विश्वास है ? १. संन्यासम् । २. नारदो गतः । ३. गृहीत । ४. छागपुत्रः। ५. परारि-पूर्वतरवत्सर । ६. आवां श्रुतवन्तौ । ७. गतवर्ष । ८. इदानीमस्मिन् वर्षे। ९. सन्देह । १०. अद्यश्वः परदिने वा प्रसोष्यते । ११. अर्थकथने । १२. स्वतन्त्रः । १३. विपरीतं करोति । १४. मादशी विधिः तस्य इने-नाथे।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy