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________________ १८२ सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो० ३६४वधःप्रबोधोचितमतिभ्यामिदमतिपवित्रमपि सूत्रं विपर्यासयितव्यम्।। एतच्च प्रवचनलोचनालोकितब्रह्मस्तम्बः क्षीरकदम्बः संश्रुत्य 'नूनमस्मिन्महामुनिवाक्येऽर्थात्सप्तरुचिमरीचिवद्वाभ्यामूर्ध्वगाभ्यां भवितव्यमिति प्रतीयते । तत्राहं तावदेकदेशयतिव्रतपूतात्मानमात्मानमधरधामसंनिधानं न संभावयेयम् । नरकान्तं राज्यम्, बन्धनान्तो नियोगः. मरणान्तः स्त्री विश्वासः, विपदन्ता खलेषु मैत्री, इति वचनादिन्दिरामदिरामदमलिनमनःप्रचारे राज्यभारे प्रसरदसुं वसुं च नोर्ध्व यियासुम् । तन्नारदपर्वती परीक्षाधिकृतौ' इति निश्चित्य समिथमयमूर्णायुद्वयं निर्माय प्रदाय च ताभ्याम् 'अहो, द्वाभ्यामपि भवभ्यामिदमुरंणयुगलं यत्र न कोऽप्यालोकते तत्र विनाश्य प्राशितव्यम्' इत्यादिदेश। तावपि तदादेशेन हव्यवाहे वाहनद्वितयं प्रत्येकमादाय यथायथमयासिष्टाम् । तत्र सत्ख्याति खर्वः पर्वतः पस्त्यपाश्चात्यकुम्बा, पसद्यापार्थे च भटित्रमुरभ्रपुत्रमुदरानलपात्रमकार्षीत् । शुभाशयविशारदो नारदस्तु 'यत्र न कोऽप्यालोकते' इत्युपाध्यायोक्तं ध्यायन् 'को नामात्र पुरे कान्तारे वा सद्रघणो योऽधिकरणं नात्मेक्षणस्य व्यन्तरगणस्य महामुनिजनान्तःकरणस्य च' इति विचिन्त्य तथैव तं वृष्णिमुपाभ्यायाय समर्पयामास । उपाध्यायो नारदमप्यूर्ध्वगमवबुद्धद्य संसारतरुस्तम्बमिव कचनिकुरम्बमुत्पाटय ठीक है, किन्तु इन चारोंमें से दो शिष्योंकी बुद्धि पानीमें पड़े भारी पदार्थकी तरह नीच ज्ञानकी ओर जानेवाली है, ये दोनों इस अत्यन्त पवित्र शास्त्रको भी विपरीत कर देंगे।' शास्त्ररूपी चक्षुसे ब्रह्माण्डको देखनेवाले क्षीरकदम्बने मुनियोंकी बातचीत सुन ली। वह सोचने लगा-'महामुनिके वाक्यसे ऐसा प्रतीत होता है कि हममें से दो निश्चय ही अग्निकी शिखाकी तरह उर्ध्वगामी हैं। उनमें से मैं तो देशचारित्रका पालक हूँ अतः अपने नरकगामी होनेकी सम्भावना तो मैं नहीं कर सकता। कहावत है कि-'राज्यका फल नरक है। शासनका फल वन्धन है। स्त्रीमें विश्वास करनेका फल मरण है और दुर्जनोंसे मैत्री करनेका फल विपत्ति है ।' अतः लक्ष्मीरूपी मदिराके मदसे मनको कलुषित करनेवाले राज्यभारमें जिसके प्राण बसे हैं वह वसु ऊर्ध्वगामी हो नहीं सकता। शेष रह जाते हैं नारद और पर्वत । इनकी परीक्षा करनी चाहिए।' ऐसा निश्चय करके पुरोहितने हविष्यके दो मेढ़े बनवाये और दोनों को एक-एक मेढ़ा देकर कहा-'तुम दोनों जहाँ कोई न देख सके, ऐसे स्थानपर इन मेढ़ोंको मारकर खा जाओ।' गुरुकी आज्ञासे वे दोनों उन मेढ़ोंको लेकर चले गये। उनमेंसे पर्वतने तो घरके पिछवाड़े एक घिरे हुए स्थानपर जाकर उस मेढ़ेके बच्चेको भूनकर अपने पेटमें रख लिया । किन्तु शुभाशयी नारदने गुरुके 'जहाँ कोई न देख सके' इस वचनका ध्यान करके विचारा-'नगर या जंगलमें ऐसा कौन-सा स्थान है जो अतीन्द्रियदर्शी व्यन्तरादिकका और महामुनियोंके अन्तःकरणका विषय न हो।' ऐसा विचारकर उसने वह मेढ़ा जैसाका-तैसा उपाध्यायको सौंप दिया। पुरोहितने जान लिया कि नारद भी ऊर्ध्वगामी है। अतः संसाररूपी वृक्षके गुच्छोंके १. ब्रह्माण्डः। २. अग्नि । ३. नीचस्थान-नरक । ४. विस्तरत्प्राणम् । ५. नाहं संभावयेयमिति वाक्यशेषः। ६. कणिकमयं छागद्वयम् । ७. ऊरणद्वयं । ८. -मर्णायुयुगलं-आ० । ९. हत्वा । १०. मेषद्वयम् । ११. तयोश्छात्रयोः। १२. ह्रस्वः । १३. वृत्तिम् । १४. कृत्वा । १५. शूलाकृतं। १६. प्रदेशः । १७. स्थानम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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