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________________ -३६२ ] उपासकाध्ययन स्तदवाप्तिप्रपञ्चम् । श्रीदत्तः-गोविन्द, मदीये सदने किमपि महत्कार्यमात्मजस्य निवेद्यमस्ति । तदयं 'प्रबुरिमं लेखं प्राहयित्वा सत्वरं प्रहेतेव्यः।' गोविन्दः-'श्रेष्ठिन् , एवमस्तु ।' लेखं चैवमलिखत्-'अहो विदितसमस्तपौतवकल महाबल, एष खल्वस्मद्वंशविनाशवैश्वानरोऽवश्यं विष्यो मुशल्यो वा विधातव्यः' इति । धनकीर्तिस्तथा तातवणिक्पतिभ्यामादिष्टः सार्वष्टम्भं गलालङ्कारसखं लेखं कृत्वा गत्वा च जन्मान्तरोपकाराधीनमीनावतारसरसीमेकानी तत्प्रवेशपदिरपर्यन्तवर्तिनि वने पद्मश्रमापनयनाय "पिकप्रियालवालपरिसरे "निःसंज्ञमस्वाप्सीत् ।। अत्रावसरे विहितपुष्पावचयविनोदा सपरिच्छदा निखिलविद्याविदग्धा पूर्वभवोपकारस्निग्धा संजीवनौषधिसमानानङ्गसेनानामिका गणिका तस्यैव सहकारतरोस्तलमुपदौक्य विलोक्य च निस्पन्दलोचना चिराय तमनङ्गमिव "मुक्तकुसुमास्त्रतन्त्रं "लोकान्तरमित्रमशेषलक्षणोपलक्षितमूर्ति धनकोतिं पुनरायुःश्रीसरस्वतीसमागमादेशरेखात्रयेणेव प्रकटवितर्कितकर्कोटत्रयेण बन्धुरमध्यप्रदेशात्कण्ठदेशादादायापायप्रतिपादनाक्षरालेख लेखमवाचयत् । लिलेख च तं वाणिजकापसदं हृदयेन "विकुर्वती लोचनाअनकरण्डादुपातेन वनवल्लिपल्लवनिर्यासरसद्रुतेन कजलेनार्जुनर्शलाकया तत्रैव परिम्लिष्टेपुरातनसूत्रे पत्रे लेखान्तरम् । तथा हि-'यदि श्रेष्ठिनी मामवधेयेवंचनं श्रेष्ठिनं मन्यते, महाबलश्च यदि मामनुल्लङ्घनीय'गोविन्द, मुझे अपने घरपर अपने लड़केसे कुछ जरूरी बात कहलाना है । अतः इस लड़केको यह पत्र देकर शीघ्र भेज दो।' गोविन्दने श्रीदत्तकी बात स्वीकार कर ली। पत्रमें लिखा था-'माप-तौलमें कुशल महाबल! यह लड़का हमारे वंशका विनाश करनेके लिए आगके समान है। अतः या तो इसे विष दे देना या मूसलसे मार डालना।' पिता और वैश्यपतिकी आज्ञा पाकर उस मुद्राङ्कित पत्रको अपने गलेमें बाँधकर धनकीर्ति उस उज्जैनी नगरीकी ओर चल दिया जिसमें उसके द्वारा पूर्व जन्ममें उपकृत मछलीने जन्म लिया था। नगरीके निकट पहुँचकर वह नगरीके.प्रवेश मार्गके निकटवर्ती वनमें रास्तेकी थकान दूर करनेके लिए आमकी क्यारियोंके निकट गहरी नींदमें सो गया। इसी बीचमें वस्त्रालंकारसे सुसज्जित, समस्त विद्याओंमें निपुण और पूर्व जन्मके उपकारसे उपकृत अनङ्गसेना नामक वेश्या पुष्प चयन करके उसी आमके पेड़के नीचे आयी और कामदेव के समान सुन्दर समस्त लक्षणोंसे युक्त तथा पूर्व जन्मके मित्र धनकीर्तिको देखकर देखती ही रह गयी। उसके कण्ठमें तीन रेखाएँ थीं जो मानो आयु, लक्ष्मी और सरस्वतीके आगमनको ही सूचित करती थीं। अचानक अनङ्गसेनाकी निर्निमेष दृष्टि गलेमें बँधे पत्रपर पड़ी। उसने उस अशुभ पत्रको खोलकर पढ़ा, और उस निकृष्ट वणिकका हृदयसे तिरस्कार करते हुए अपने लोचन रूपी अञ्जनकी डिबियासे काजल लेकर उसे लताओंकी नयी कोंपलोंके रसमें भिगोया तथा चाँदी की सलाईसे अथवा तृणसे उसी पत्रपर पहलेके लेखको मिटाकर दूसरा लेख लिखा । लेख इस १. प्रकृष्ट जानुः । २. प्रेषणीयः । ३. तुला मानं वा। ४. विषेण वध्यः । ५. मुशलेन वध्यः । ६. मुद्रासहितम् । ७. पूर्वजन्मनि यो मत्स्यः स पत्र वेश्या जाता वर्तते । ८. उज्जयिनीम् । ९. मार्ग । १०. आम्रवृक्षथाणप्रांगणे । ११. निश्चेतनं यथा । १२. चतुरा। १३. वाणान् विना कन्दर्पम् । १४. जन्मान्तरोपकारिणम् । १५. कण्ठरेखा । १६. निन्दती। १७. घोलितेन। १८. हेम, तृणं वा । १९. पूर्वाक्षराणि परिमृज्य नूतनाक्षराणि लिखितानि । २०. आदरणीय ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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