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________________ १६० सोमदेव विरचित [कल्प २६, श्लो० ३६२श्रीदत्तः श्रवणपरम्परया तमेनं वृत्तान्तमुपश्रुत्याश्रित्य च शिशुविनाशनाशयेन कीनाश इव तन्निवेशम् 'इन्द्रदत्त, अयं महाभागधेयो भागिनेयो ममैव तावद्धाम्नि वर्धताम्' इत्यभिधाय सभगिनीकं 'तोकमात्मावासमानीय पुरावत्करप्रक्षः संझपनार्थमन्तावसायिने' प्रायच्छत । सोऽपि दिवाकीर्तिरुपात्तपुत्रभाण्डः सत्त्वरमुपहरगहरानुसारी समीरवेशविगलितधनाम्बरावरणं हरिणकिरणमिव ईक्षणरमणीयं गुणपालतनयमालोक्य सदयहृदयः प्रबलविटपिसंकटे सरित्तटनिकटे परित्यज्य यथायथमश्वाल्लीत् । तत्राप्यसौ पुरोपार्जितपुण्यप्रभावादुपातृभिरिव एतद्वीक्षणात्तरत्क्षीरस्तनीभिरानन्दोदीरितनिर्भरहम्भाध्वनिभिः 'प्रचारायागताभिः कुण्डोनीभिर्बज लोकधेनुभिरुपर"सविधभागोऽपदान्तरमागतेन तद्रक्षणदक्षण गोपालजनेन "अस्तावतंसंभासिन्यशोकस्तबकसुन्दरे "सरोजसुहृदि सति विलोकितः। कथितश्च सकलगोष्ठज्येष्ठाय बल्लवकुलवरिष्ठाय निजाननापहसितारविन्दाय गोविन्दाय । सोऽपि पुत्रप्रेम्णा प्रमोदगरिम्णा चानीय जनितहृदयानन्दायाः सुनन्दायाः समर्पितवान् । अ(क)रोश्चास्येन्दिरामन्दिरस्य धनकीर्तिरिति नाम। ततोऽसौ क्रमेण मकरन्दपरित्यक्तशैशवदशः कमलेश इव युवजनमन:पण्यतारुण्योत्फुल्लबलवीलोचनालिकुलावे ले लावण्यमकरन्दममन्दानन्दकामदमतिकान्तरूपायतनं यौवनमासादितः पुनरपि प्राज्याज्यवणिज्योपार्जनसजागमनेन तेन श्रीदत्तेन दृष्टः । पृष्टश्च गोविन्दतरह इन्द्रदत्तके घर आया और बोला-'इन्द्रदत्त ! यह भाग्यशाली भानजा मेरे ही घरमें बड़ा होना चाहिए।' यह कहकर बहिनके साथ बच्चेको अपने घर ले आया और पहलेकी ही तरह मार डालनेके लिए उसे वधिकको दे दिया। वह बधिक भी उस बच्चेको लेकर शीघ्र ही एकान्त ग़फाकी ओर चल दिया। हवाके चलनेसे जिसके ऊपरसे मेघपटलका आवरण हट गया है उस चन्द्रमाके समान नयनाभिराम उस बालकको देखकर उसका हृदय भी दयालु हो गया। और नदीके किनारे वृक्षोंके एक झुण्डमें उस बालकको रखकर वह चला गया। इसके पूर्वोपार्जित पुण्यके प्रभावसे वहाँ भी चरनेके लिए जो गायें आयी थीं वे इसे देखते ही आनन्दसे रभाती हुई इसके पास चली आयीं और उनके थनोंसे दूध झरने लगा। सन्ध्याके समय जब सूर्य डूबने लगा तो उन गायोंके रखवाले ग्वालोंने यह कौतुक देखा और समस्त ग्वालोंके सरदार गोविन्दसे कहा । पुत्र स्नेह वश आनन्दसे गद्गद होता हुआ गोविन्द भी उस बालकको घर ले आया और अपनी पत्नी सुनन्दाको सौंप दिया । बालकका नाम धनकीर्ति रखा गया । धीरे-धीरे बचपनको छोड़कर धनकीर्ति असीम आनन्दको देनेवाली तथा अत्यन्त मनोहर रूपकी दात्री युवावस्थाको प्राप्त हुआ। श्री कृष्णकी तरह युवाजनोंके मनको खरीदनेके लिये पण्य रूप तारुण्यसे विकसित गोपिकाओंके लोचनरूपी भ्रमर उसके लावण्यरूपी मकरन्दका पान करनेके लिए आकुल रहते थे। एक दिन घीके व्यापारके निमित्तसे श्रीदत्त उधर आ निकला । उसने देखा और गोविन्दसे पूछा कि यह लड़का उसे कहाँ से मिला ? सुनकर श्रीदत्त बोला १. पुत्रम् । २. मारणार्थम् । ३. मातंगाय । ४. एकान्त । ५. वायुवशेन । ६. चन्द्रम् । ७. आशु गतवान् । ८. धात्रीभिः । ९. शिशु । १०. हंभा-गोरुतम् । ११. तृणादनार्थम् । १२. गोपाल । १४. समीप । १५. सन्ध्यासमये । १६. भागिन्य-आ० । १७. रवौ। १८. लक्ष्मीगृहस्य। १९. हरिरिव । २०. मनोग्रहणे यत्पण्यं क्रियाणं (2) अर्थप्रायं तारुण्यम् । २१. गोपी। २२. आस्वाद्य ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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