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________________ १४१ -३१०] उपासकाध्ययन कर्मप्रियोऽपि तथा पृथिवीश्वरनिदेशमनुदिनमनुतिष्ठन्नेकदा पृदाकुपाकोपद्वतः प्रेत्य स्वयम्भूरमणाभिधानमुद्रे समुद्रे महादेहबलस्तिमिशिलगिलो बभूव । भूपालोऽपि चिरकालेन कथाशेषतामाश्रित्य पिशिताशनाशयानुबन्धात्तत्रैव सिन्धौ तस्यैव महामीनस्य कर्णबिले तन्मलाशेनशीलः शालिसिक्थंकलकलेवरः शफरोऽभूत् । तदन्वेष पर्याप्तोभयकरणस्तस्य वदनं व्यादाय निद्रायतो गलगुहावगाहे वेलानदीप्रवाह इवानेकं जलचरानीकं प्रविश्य तथैव निकामन्तं निरीक्ष्य 'पापकर्मा निर्भाग्याणां चाग्रणीधर्मा खल्वेष भषो यद्वक्रसंपातरतचेतांस्यपि न शक्रोति अशितुं यादांसि । मम पुनर्यदि हृदयेप्सितप्रभावाईवादेतावन्मानं गात्रं स्यातदा समस्तमपि समुद्रं विद्रुतसकलसत्त्वसंचारमुद्रं विदधामि' इत्यभिध्यानादल्पकायकर्लः शकुलो निखिलनकचक्रचाराधे महादेहाधीनो मीनः कालेन विद्योत्पद्य चोत्तमतस्त्रयरिंशत्सागरोपमायुनिलये निरये भवप्रत्ययायत्ताविर्भूतक्षानविशेषौ तावनिमिषचरौ नारकपर्यायधरौ किलैवमालापं चक्रतुः-'अहो खुद्रमत्स्य, तथा निर्मितकर्मणो दुष्कर्मणो ममाभागतिरुचितैव । तव तु मत्कर्णविले मलोपजीवनस्य कथमत्रागमनमभूत् ? हे महामत्स्य, चेष्टितादपि दुरन्तदुःखसंबन्धनिबन्धनादशुभध्यानात् ।' भवति चात्र श्लोकः इस प्रकार कर्मप्रिय राजाकी आज्ञाके अनुसार प्रतिदिन मांस पकाता था। एक दिन उसने साँपका मांस पकाया और उसीके जहरसे मरकर वह स्वयंभूरमण नामके समुद्र में विशालकाय तिमिङ्गिल नामका महामत्स्य हुआ। कुछ कालके वाद राजा भी मरकर मांस खानेके संकल्पके कारण उसी समुद्र में उसी महामत्स्यके कानमें उसका मैल खानेवाला मत्स्य हुआ, जिसका शरीर शाली चावलके बराबर था । महामत्स्य मुँह खोलकर सोता रहता था और उसके गुफाके समान गहरे गलेमें नदीके प्रवाहकी तरह जलचर जीवोंकी सेना घुसकर जीवित निकल आती थी। उसे देखकर तन्दुलमत्स्य सोचता- 'यह मत्स्य बड़ा पापी और अभागोंमें भी सबसे बड़ा अभागा है, जो अपने मुँहमें स्वयं ही आनेवाले मत्स्योंको भी नहीं खा सकता । यदि हार्दिक इच्छाके प्रभावसे दैववश मेरा इतना बड़ा शरीर हो जाये तो मैं समस्त समुद्रको जलचर जीवोंसे शून्य कर दूं।' इस संकल्पसे अल्पकाय तन्दुलमत्स्य और समस्त मगरमच्छोंको खानेसे महाकाय महामस्य मरकर सातवें नरकमें तेतीस सागरकी उत्कृष्ट आयु लेकर उत्पन्न हुए। उन दोनोंको भवप्रत्यय नामका कुअवधि ज्ञान था। उसके द्वारा पूर्वजन्मका वृत्तान्त जानकर वे दोनों नारकी आपसमें कहते-'तन्दुलमत्स्य ! मैंने बड़ा पाप किया इसलिए मेरा यहाँ आना तो उचित ही था। किन्तु तुम तो मेरे कानके बिलमें कानका मैल ही खाया करते थे। तुम यहाँ कैसे आये ?' तब तन्दुल मस्त्य उत्तर देता–'तुम्हारे कर्मसे भी बुरे, महादुःखके कारण अशुभ ध्यानसे मरकर मैं यहाँ पैदा हुआ हूँ।' इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है . १. कुर्वन् । २. सर्प । ३. मृत्वा । ४. संतत्या प्रवर्तनात् । ५. भक्षण । ६. शालिसिक्थमात्रशरीरः । ७. संपातरन-अ० ज०। ८. भागः । ९. मत्स्यः । १०. भक्षणात् । ११. मृत्वा । १२. भूतपूर्वमत्स्यो ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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