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________________ सोमदेव विरचित [कल्प २४, श्लो०-३११ क्षुद्रमत्स्यः किलैकस्तु स्वयम्भूमणोदधौ । महामत्स्यस्य कर्णस्थः स्मृतिदोषादधो गतः ॥३१॥ -वरांगचरित ५,१०३ । इत्युपासकाध्ययने मांसाभिलाषमात्रफलप्रलपनो नाम चतुर्विंशतितमः कल्पः । श्रूयतामत्र मांसनिवृत्तिफलस्योपाख्यानम्-अवन्तिमण्डलनलिनाभिनिवाससरस्यामेकानस्यां पुरि पुरबाहिरिकायां देविलामहिलाविलासविशिखवृत्तिकोदण्डस्य चण्डनाम्नो मातङ्गस्यैकस्यां दिशि निवेशितपिशितोपदंशस्यापरस्यां दिशि विन्यस्तसुरासंभृतकलशस्य तां पलावदंशोदारां सुरां पायं पायं तदुभयान्तराले चर्मनिर्माणतन्त्रां वरत्रां. वर्तयतो वियनिहारोडीनाण्डजडिम्भतुण्डखण्डनविनिष्पन्दिविषधरविषदोषावसरा सुरासीत्। अत्रैवावसरे तत्समीपवर्त्मगोचरे धर्मश्रवणजन्मान्तरादिप्रकाशनपथाभिः कथाभिर्विनेयजनोपकाराय कृतकामचारप्रचारमम्बरान्मूर्तिमत्स्वर्गापवर्गमार्गयमलमिवावतरचारणर्षियुगलमवलोक्य संजातकुतूहलस्तं देशमनुगम्य नगरे तदर्शनेन श्रावकलोकं व्रतानि समाददानमनुस्मृत्य समाचरितप्रणामः सुनन्दनाग्रेसरगमनमभिनन्दनं भगवन्तमात्मोचितं व्रतमयाचत । भगवानपि उपकाराय सर्वस्य पर्जन्य इव धार्मिकः । तत्स्थानास्थानचिन्तेयं वृष्टिवन्न हितोक्तिषु ॥३१२॥ "स्वयंभूरमण समुद्रमें महामत्स्यके कानमें रहने वाला तन्दुलमत्स्य बुरे संकल्पसे नरक में गया ॥३११॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें मांसकी इच्छा मात्र करनेका फल बतलानेवाला ___चौबीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। अब मांस त्यागके फलके सम्बन्धमें एक कथा कहते हैं, उसे सुनें १२ मांसत्यागी चाण्डालकी कथा अवन्तिदेशकी उज्जयिनी नामकी नगरीमें नगरके बाहर चण्ड नामका एक चाण्डाल रहता था । एक दिन वह चाण्डाल मौज ले रहा था। उसके एक ओर मांसके व्यंजन रखे हुए थे। दूसरी ओर शराबसे भरे कलश रखे थे। चाण्डाल मांसके व्यंजनोंके साथ शराब पीता जाता था और बीच-बीचमें चमड़ेकी रस्सी बटता जाता था। आकाशमें उड़ते हुए एक पक्षीशावकका मुँह खुल जानेसे एक सर्प शराबमें आ गिरा था और उससे शराब विषैली हो गयी थी। इसी समय धर्मोपदेश तथा जन्मान्तरकी कथाओंके द्वारा लोगोंका उपकार करनेके लिए भ्रमण करते हुए दो चारण ऋद्धिके धारी मुनियोंको पासमें ही आकाशसे उतरते हुए देखकर चाण्डालको बड़ा कुतूहल हुआ। वह भी उनके समीप गया। वहाँ नगरके श्रावकोंको व्रत ग्रहण करते हुए देखकर उसने उन्हें प्रणाम किया और सुनन्दन मुनिके अग्रवर्ती भगवान् अभिनन्दन मुनिसे अपने योग्य व्रतकी याचना की। _ 'जैसे मेघ सबके उपकारके लिए है वैसे ही धार्मिक पुरुष भी सबके उपकारके लिए हैं। १. सिक्थमत्स्यः किलकोऽसौ स्वयम्भूरमणाम्बुधौ। महामत्स्यसमान् दोषान् अवाप स्मृतिदोषतः ॥४७॥ -महापुराण २१ पर्व । २. उज्जयिन्याम् । ३. बाण । ४. सुरासारसं-. । ५. पलोपदंशो-ब०। ६. मेघ । ७. एष उत्तम एष नीचः धर्मकथने इति चिन्ता न सर्वेषां धर्मों वाच्यः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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