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________________ १४० सोमदेव विरचित [कल्प २४, श्लो० -३१० श्रूयतामत्र मांसाशनाभिध्यानमात्रस्यापि पातकस्य फलम्-श्रीमत्पुष्पदन्तभदन्तावतारावतीर्णत्रिदिवपतिसंपादितोयोवेन्दिरासन्यां काकन्यां पुरि श्रावकान्वयसंभूतिः सौरसेनो नाम नृपतिः कुलधर्मानुरोधबुद्धया गृहीतपिशितव्रतः पुनर्वेदवैद्याद्वैतमतमोहितमतिः संजातजाङ्गलजिधित्सानुमतिरङ्गीकृतवस्तुनिर्वहणाजनापवादाज्जुगुप्समानो मनोविश्रान्तिहेतुना कर्मप्रियनामकेतुना बल्लेवेन रहँसि बिलस्थलजलान्तरालचरतरसमानार्ययन्नप्यनेकराजकार्यपर्याकुलमानसतया मांसभक्षणक्षणं नावाप । भावार्थ-जो व्यक्ति या धर्म मांसाहारको उचित ठहराते हैं वे उसके समर्थनमें अनेक कुयुक्तियाँ देते हैं । उन्हींका निर्देश तथा परीक्षण ग्रन्थकारने ऊपर किया है। जीवका शरीर होने मात्रसे मांसको अभक्ष्य नहीं बतलाया गया है, किन्तु एक तो किसी पञ्चेन्द्रिय जीवको काटे बिना मांस उत्पन्न नहीं होता । दूसरे वह अत्यन्त तामसिक भोजन है । दूध, फल वगैरहमें यह बात नहीं है। वे पशुओं और वृक्षोंको बिना हानि पहुँचाये प्राप्त किये जा सकते हैं तथा उनके खानेसे चित्तमें सात्त्विकता आती है । कहा जा सकता है कि यदि स्वयं मरे हुए जीवका मांस प्राप्त हो जाये तो क्या हानि है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि इससे शुरूमें किसी जीवका घात नहीं होगा किन्तु आगे मांस खानेका चश्का लग जानेसे दूसरे लोगोंके द्वारा मारे गये पशुके मांसमें भी प्रवृत्ति होने लगेगी। जैसे बौद्ध धर्ममें त्रिकोटि परिशुद्ध मांसके ग्रहण कर लेनेका विधान है तो तिब्बतके लामाओंके लिए शहरसे दूर पशु मारे जाते हैं और उनका मांस वह ग्रहण कर लेते हैं। दूसरे, मांसमें भी एकेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति होने लगती है तीसरे, मृत पशुका मांस खानेपर भी तामसिकपना तो बना ही रहता है । वह तो मांसमात्रका धर्म है । अतः मांसाहार और दुग्ध तथा फलाहार समान नहीं हो सकता । हिन्दू धर्ममें यज्ञके प्रसादके तौरपर मांसके ग्रहणका विधान कुछ ग्रन्थोंमें मिलता है । किन्तु जो चीज स्वभाव से ही अशुद्ध है, मन्त्रादिकके द्वारा उसे शुद्ध नहीं किया जा सकता । यदि मंत्रों के द्वारा स्वभावसे ही अशुद्ध वस्तुएँ भी शुद्ध हो सकती हैं तो फिर तो संसारमें अभक्ष्य कुछ रहेगा ही नहीं। अतः यज्ञादिकमें मन्त्रपाठपूर्वक पशुका बलिदान करके उसका मांस खाना भी निरामिषभोजियों के लिए उचित नहीं है। मांस खाना तो बहुत दूर है उसका इरादा करना भी बुरा है। मांस खानेके संकल्पमात्रसे भी जो पाप होता है उसके फलके सम्बन्धमें एक कथा है उसे सुनें-- ११ मांसभक्षणसंकल्पी राजा सौरसेनकी कथा भगवान् पुष्पदन्तके जन्मोत्सवसे पवित्र काकन्दी नगरीमें श्रावककुलोत्पन्न सौरसेन नामका राजा राज्य करता था। उसने अपना कुलधर्म समझकर मांस खानेका त्याग कर दिया था। बादमें कुछ वैदिकों, वैद्यों और शैवोंके कहनेसे उसे मांस खानेकी रुचि उत्पन्न हुई । किन्तु की हुई प्रतिज्ञाको न निबाहनेके लोकापवादसे वह डरता था। उसका कर्मप्रिय नामका रसोइया एकान्तमें अनेक जलचर, थलचर और बिलोंमें रहनेवाले जन्तुओंका मांस तैयार करता था किन्तु अनेक राजकार्योंमें घिरे रहनेसे उसे मांस खानेके लिए एकान्त समय नहीं मिलता था। १. चिन्तनम-इच्छामात्रं वा । २. उत्सवलक्ष्मीस्थान । ३. वेदवचन-वैद्यवचन-शैववचन । ४. सपकारेण । ५. एकान्ते । ६. आनयनं कारयन् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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