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________________ ३१. ] उपासकाध्ययन अथवा हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे । विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥३०॥ . अपिच शरीरावयवत्वेऽपि मांसे दोषो न सपिषि । जिह्वावन्न हि दोषाय पादे मद्यं द्विजातिषु ॥३०६॥ विधिश्वेत्केवलं शुद्धथै द्विजैः सर्वे निषेव्यताम्। शुद्धयै चेत्केवलं वस्तु भुज्यतां श्वपचालये ॥३०७॥ तद्रव्यदातपात्राणां विशुद्धौ विधिशुद्धता। यत्संस्कारशतेनापि नाजातिढिजतां व्रजेत् ॥३०॥ तच्छाक्यसांख्यचार्वाकवेदवैद्यकपर्दिनाम् । मतं विहाय हार्तव्यं मांसं श्रेयोऽर्थिभिः सदा ॥३०॥ यस्तु लौल्येन मांसाशी धर्मधीः स द्विपातकः। परदारक्रियाकारी मात्रा सत्रं यथा नरः ॥३१०॥ अथवा, मांस और दूधका एक कारण होनेपर भी मांस छोड़ने योग्य है और दूध पीने योग्य है । जैसे कारस्कर नामके विषवृक्षका पत्ता आयुवर्धक होता है और उसकी जड़ मृत्युका कारण होती है ।।३०५॥ और भी कहते हैं मांस भी शरीरका हिस्सा है और घी भी शरीरका ही हिस्सा है फिर भी मांसमें दोष है, घी में नहीं । जैसे ब्राह्मणोंमें जीभसे शराबका स्पर्श करनेमें दोष है पैरमें लगानेपर नहीं ॥३०६॥ यदि विधिसे ही वस्तु शुद्ध हो जाती तो ब्राह्मणोंके लिए कोई वस्तु असेव्य रहती ही नहीं । और यदि केवल वस्तुकी शुद्धि ही अपेक्षित है तो चाण्डालके घरपर भी भोजन कर लेना चाहिए ॥३०॥ अतः द्रव्य, दाता और पात्र तीनोंके शुद्ध होनेपर ही शुद्ध विधि बनती है। क्योंकि सैकड़ों संस्कार करनेपर भी शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता ॥ ३०८ ॥ इस लिए जो अपना कल्याण चाहते हैं उन्हें बौद्ध, सांख्य, चार्वाक, वैदिक और शैवोंके मतोंकी परवाह न करके मांसका त्याग कर देना चाहिए ॥३०॥ जैसे जो परस्त्रीगामी पुरुष अपनी माताके साथ सम्भोग करता है वह दो पाप करता है, एक तो परस्त्री गमनका पाप करता है और दूसरे माताके साथ सम्भोग करनेका पाप करता है। वैसे ही जो मनुष्य धर्मबुद्धिसे लालसापूर्वक मांस भक्षण करता है वह भी डबल पाप करता है। एक तो वह मांस खाता है दूसरे धर्मका ढोंग रचकर उसे खाता है ॥३१०॥ १. विषतरोः आयुनिमित्त पत्रं स्यात् । “पयः पेयं पलं हेयं समे सत्यपि साधने । विषद्रोरायुषे पत्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥३८॥" -प्रबोधसार । "ग्राह्य दुग्धं पलं नैव वस्तुनो गतिरीदृशी। विषद्रोः पत्रमारोग्यकृन्मूलं मृतिकृद् भवेत् ॥४२॥" -धर्मसं०। २. द्वयोमाससपिषोः निमित्तं शरीरमेव । "शरीरावयवत्वेऽपि मांसे दोषो न सपिषि । धेनुदेहस्रुतं मूत्रं न पुनः पयसा समम् ॥३९॥" -प्रबोधसार । ३. संप्रोक्षणं यज्ञादिश्चेत् शुद्धघं भवति । ४. योग्यमयोग्यञ्च । ५. अथवा विधिस्तिष्ठतु वस्तु स्वयमेव शुद्धं वर्तते । ६. त्याज्यम् । ७. मांसभक्षकः। ८. तस्य पातकद्वयं भवति । ९. सह । 'यस्तु मांसादिलोल्येन धर्म धर्मेति भाषते । मांसास्वादाद्विधेध्वंसात् स स्यात्पापद्वयाश्रयः ॥४०॥' -प्रबोधसार । 'पापी हास्यं लभेतासी मांसलौल्येन धर्मधीः । परदारं विधातेव मात्रा सार्द्ध नराधमः ॥४१॥ प्रबोधसार ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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