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________________ १३८ सोमदेव विरचित जीवयोगाविशेषेण मेयमेषादिकायवत् । मुद्गमाषादिकायोऽपि मांसमित्यपरे जगुः ||३०० || तदयुक्तम् । तदाह किंव [ कल्प २४, श्लो० ३०० मांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन वा मांसम् । यद्वनिम्बो वृक्षो वृक्षस्तु भवेन वा निम्बः ॥३०१॥ द्विजाण्डजनिहन्तॄणां यथा पापं विशिष्यते । जीवयोगाविशेषेऽपि तथा फलपलाशिनाम् ||३०२ || स्त्रीत्वपेयत्वसामान्याद्दारंवारिवदीहताम् । एष वादी वदन्नेवं मद्यमातृसमागमे ॥ ३०३ ॥ शुद्धं दुग्धं न गोर्मासं वस्तुवैचित्र्यमीदृशम् । विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं च विपदे यतः ॥३०४ ॥ भले ही कहलावें किन्तु इसकी परवाह न करें। आप दृढ़ रहेंगे तो दुनिया आपकी बातकी कदर करने लगेगी । किन्तु यदि आप ही अपना विश्वास खो बैठेंगे और क्षण-भर की वाहवाही में बह जायेंगे तो न अपना हित कर सकेंगे और न दूसरोंका हित कर सकेंगे। मधु भी मद्य और मांसका भाई है। कुछ लोग आधुनिक ढंगसे निकाले जानेवाले मधुको खाद्य बतलाते हैं । किन्तु ढंग बदलने मात्रसे मधु खाद्य नहीं हो सकता । आखिरको तो वह मधु मक्खियोंका उगाल ही है । मांस, और अन्न, दूध वगैरह में अन्तर कुछ लोगोंका कहना है कि मूँग, उड़द वगैरह में और ऊँट, मेदा वगैरह में कोई अन्तर नहीं है क्योंकि जैसे ऊँट, मेढ़ा वगैरहके शरीर में जीव रहता है वैसे ही मूँग उड़द वगैरह में भी जीव रहता है। दोनों ही जीवके शरीर हैं। अतः जीवका शरीर होनेसे मूँग, उड़द वगैरह भी मांस ही हैं ||३०० ॥ किन्तु उनका ऐसा कहना ठीक नहीं है । क्योंकि मांस जीवका शरीर है यह ठीक है । किन्तु जो जीवका शरीर है वह मांस होता भी है और नहीं भी होता । जैसे, नीम वृक्ष होता है किन्तु वृक्ष नीम होता भी है और नहीं भी होता ॥ ३०१ ॥ तथा I जैसे ब्राह्मण और पक्षी दोनोंमें जीव है फिर भी पक्षीको मारनेकी अपेक्षा ब्राह्मणको मारने जीवका शरीर है, किन्तु तथा जिसका यह कहना में अधिक पाप है । वैसे ही फल भी जीवका शरीर है और मांस भी फल खानेवालेकी अपेक्षा मांस खानेवालेको अधिक पाप होता है ॥ ३०२ ॥ है कि फल और मांस दोनों ही जीवका शरीर होनेसे बराबर हैं उसके लिए पत्नी और माता दोनों स्त्री होनेसे समान हैं और शराब तथा पानी दोनों पेय होनेसे समान हैं । अतः जैसे वह पानी और पत्नीका उपभोग करता है वैसे ही शराब और माताका भी उपभोग क्यों नहीं करता ? ॥ ३०३ ॥ गौका दूध शुद्ध है किन्तु गोमांस शुद्ध नहीं है । वस्तुका वैचित्र्य ही इस प्रकार है । देखो, साँपकी मणिसे विष दूर होता है, किन्तु साँपका विष मृत्युका कारण है ||३०४|| १. उष्ट्रः । ' जीवयोगाविशेषेण उष्ट्र मेषादिकायवत् । - धर्मर०, १०८० उ. । २. मातरं दारानिव मद्यं वारीव ईहताम् । " प्राण्यङ्गत्वाविशेषेऽपि भोज्यं मांसं न धार्मिकैः । भोग्या स्त्रीत्वाविशेषेऽपि जनर्जायैव नाम्बिका ॥१०॥” – सागारधर्मामृत २ आ० । ३. अहेः सर्पस्येदं रत्नम् । धेन्वादीनां पयः पेयं न मूत्रादि स्वभावतः । विषापहमहे रत्नं विषं तु मृतिसाधनम् ||३७|| - प्रबोधसार |
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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