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________________ उपासकाध्ययन ६७ २१६ ] यथावदभिवन्द्य समाचरितनीचासनपरिग्रहः सविनयाग्रहं स्वर्गापवर्गमार्गस्वरूपनिरूपणपरायणः सद्धर्मसनाथां कथां प्रथयामास । सत्कर्मवंशेप्रभिदलिर्बलिः - 'स्वामिन्, कोऽयं स्वर्गापवर्गास्तित्वसंग्रहे देवस्य दुराग्रहः, यतो द्वादशवर्षा स्त्री षोडशवर्षः पुरुषः । तयोरन्योन्यमनन्यसामान्यस्नेह र सोत्सेकप्रादुर्भूतिः प्रीतिः प्रत्यक्षसमर्धिसर्गः स्वर्गो न पुनरदृष्टः कोऽपीष्टः स्वर्गः समस्ति' । गुणभूरिः सूरिः - 'सकले प्रमाणर्बेले बले, किं प्रत्यक्षताधिकरणमेकमेव प्रमाणं समस्ति' । नास्तिकेन्द्रमनोरथरथ मातलिर्बलिः - 'अखिलश्रुतधरोद्धारादिपुरुषविदुष, एकमेव' | भगवान् – 'कथं तर्हि भवतः पित्रोर्विवाहाद्यस्तित्वतन्त्रम्, कथं वा तवादृश्यानां वंश्यानामवस्थितिः, स्वयमप्रत्यक्षप्रमेयत्वादाप्तपुरुषोपदेशाश्रितौ स्वपक्षपरिक्षतिः परमतोत्सवकृतिश्च । बलिभट्टो भट्ट इवेतस्तटमितो मदोत्कटः करटीति संकटप्रघट्टकमापतितः परं सभाजनसभाजनॅकरमुत्तरमपश्यन्नश्लीलमसभ्यसर्ग निरर्गलमार्ग किमपि तं भगवन्तं प्रत्युवाच । क्षितिपतिरतीव मन्दाक्षविक्षिप्तवीक्षणो मुमुनुसमक्षमासन्नाश्विताशनिसंघट्ट् बलिभट्ट प्रतिष्ठाभङ्गभयात्किमप्यनभिलं'प्य 'भगवन्, संपन्नतत्त्व संबन्धस्य निजस्खलितप्रवृत्तचित्तमहामोहान्धस्य सद्धर्मध्वंसहेतोर्जन्तोर्निसर्गस्थैर्य मेरुषु गुणगुरुषु न खलु दुरपवादकरणात्परमव परिवारके कुछ आप्त पुरुषोंके साथ आचार्यके पास जाकर और उनके चरणों की वन्दना करके एक नीचे आसनपर बैठ गया और विनयपूर्वक स्वर्ग और मोक्षका स्वरूप बतलानेकी प्रार्थना करके चुप हो गया । आचार्यने स्वर्ग और मोक्षका निरूपण करते हुए धर्म चर्चा की । तब बलि बोला'स्वामी ! स्वर्ग और मोक्षका अस्तित्व माननेका दुराग्रह आप क्यों करते हैं ? बारह वर्ष की स्त्री और सोलह वर्षके पुरुषका परस्परमें जो असाधारण प्रेमरस उत्पन्न होता है. उसे प्रीति कहते हैं । यह प्रीति ही साक्षात् स्वर्ग है, उससे भिन्न कोई दूसरा अदृश्य स्वर्ग नहीं है ।' आचार्य - बलि ! क्या एक प्रत्यक्ष प्रमाण ही है ? बलि – 'हाँ, समस्त श्रुतरूपी पृथिवीका उद्धार करनेवाले आदि पुरुषके तुल्य विद्वन् महात्मन्, एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है ।' आचार्य - तो फिर तुम्हारे माता पिताने विवाह किया था इत्यादिमें क्या प्रमाण है ? और तुम्हारे पूर्व पुरुष थे इसमें भी क्या प्रमाण है ? यदि कहोगे कि जो वस्तुएँ हमारे प्रत्यक्षमें नहीं हैं उन्हें हम प्रामाणिक पुरुषोंके कथनसे मानते हैं तो ऐसा माननेमें तुम्हारे पक्षकी हानि होती है और हमारे मतकी पुष्टि होती है । इस उत्तरको सुनकर बलि संकटमें पड़ गया और सदस्यों के लिए प्रीतिकर उत्तर न सूझने पर असभ्य वचन बकने लगा । यह देखकर राजाकी आँखें शरमसे गढ़ गईं । किन्तु प्रतिष्ठा के भङ्ग होनेके भय से उसने मुनिजनों के सामने बलिसे कुछ भी नहीं कहा और बोला- 'भगवन् ! जिसका चित्त महामोहसे अन्धा हो रहा है और जो समीचीन धर्मको ध्वंस करनेपर तत्पर है तथा वर्तमान १. वेणुः तत्र प्रभित् भेदने अलिभ्रमरः । २. निश्चयः । ३. सह कलिना वर्तते है । ४. प्रमाणे बलिः पूजा यस्य सः हे । ५. इन्द्रसारथिः । ६. बलीवर्दवत् । ७. प्रीतिकरम् । ८ लज्जा । १०. अनुक्त्वा । ६. अकल्याण । १३
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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