SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 218
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोमदेव विरचित [कल्प १६, श्लो० -२१८ सधर्मधुरोधरणगंलिबलिः–'देव, न वेदादपरं तत्त्वं न श्राद्धादपरो विधिः । न यज्ञादपरो धर्मो न द्विजादपरो यतिः ॥२१८॥ सन्मार्गसोंच्छेदकः प्रहादकः 'अद्वैतान्न परं तत्त्वं न देवः शङ्करात्परः । शेवशास्त्रात्परं नास्ति भुक्तिमुक्तिप्रदं वचः ॥२१६॥ .. तथा नास्तिक्याधिक्यवाक्यवाचस्पती शुक्रबृहस्पती अपि राक्षे स्वप्रज्ञां विज्ञापयामासतुः । मनागन्तःक्षुभितमतिः क्षितिपतिः-'अहो दुजेनतालतालम्बनकुजा द्विजाः, किं ममैव पुरतो भवतां भारती प्रगल्भते, किं वा बुधप्रवेकस्य लोकस्यापि ? सन्नीतिवसुमतीविदारणहेलिबलि:-'इलापाल, यदि तवास्मन्मनीषोत्कर्षविषये सेयं मनः, तदास्तां तावदभ्यस्तशास्त्रप्रवीणप्रसः परः प्राज्ञः। किं तु सर्वस्यापि वादेर्वादे पुरस्तात्परिगृहीतविद्यानवद्या एवं'। स्थिरप्रकृतिः क्षोणीपतिः-'यद्येवं शूराणां कातराणां च रणे व्यक्तिर्भविष्यति' इत्यभिधायानन्ददुन्दुभिरवोपार्जितपरिजनपूजोपकरणो विजयशेखरं नाम करिणमारुह्यान्तःपुरानुगमग्राह्योऽतिवाय नगरमार्गमुपगतारामसीमसंसर्गः, ततः करिणोऽवतीर्य गृहीतार्यवेषपरिकरः कतिपयाप्तपरिवारपुरःसरस्तं व्रतविद्यानवयं भगवन्तं मुनियों के पास चलनेके लिए बलि मंत्रीसे पूछा । सच्चे धर्मकी धुराको उखाड़ फेंकनेमें पटु बलि बोला-'राजन्, वेदसे उत्कृष्ट कोई तत्त्व नहीं है। श्राद्धसे बढ़कर कोई दूसरी विधि नहीं है। यज्ञसे बड़ा कोई दूसरा धर्म नहीं है और ब्राह्मणसे बढ़कर दूसरा कोई यति नहीं है' ॥२१८॥ सन्मार्गका नाशक प्रह्लाद मंत्री बोला 'अद्वैतसे उत्कृष्ट दूसरा कोई तत्त्व नहीं है, शंकरसे बड़ा दूसरा कोई देवता नहीं है । और शैव शास्त्रसे बढ़कर दूसरा कोई मुक्ति और मुक्तिको देनेवाला शास्त्र नहीं है' ॥२१९॥ नास्तिक शिरोमणि शुक्र और बृहस्पतिने भी राजासे अपना अभिप्राय कहा । थोड़ा क्षुब्ध होकर राजा बोला-'अहो दुर्जनरूपी लताके आधारभूत द्विज वृक्षो, क्या मेरे ही सामने आपकी जबान चलती है या विद्वानोंके सामने भी कुछ बोल सकते हैं ?' बलि बोला-'राजन् ! यदि हमारी बुद्धिके वैशिष्टयके विषयमें आपके मनमें ईर्ष्या है तो समस्त शास्त्रोंमें प्रवीण विद्वान्की तो बात ही क्या, सर्वज्ञ भी यदि वादी हो तो उसके सामने भी हमारी विद्या निर्दोष उतरेगी।' __ 'यदि ऐसा है तो शूर-वीर और कायरकी पहचान रणमें ही होगी।' ऐसा कहकर उस स्थिरस्वभाव राजाने आनन्द सूचक मेरी वजवायी । उसे सुनकर उसके परिवार के लोग पूजाकी सामग्री ले-लेकर आ गये । तब राजा विजयशेखर नामके हाथीपर चढ़कर चल दिया और नगरके बाहर उद्यानकी सीमामें पहुँचते ही हाथीसे उतर पड़ा। तथा अपने १. दुष्टवृषः । २. महत् हलम् । ३. भूपाल । ४. वादिनः । ५. बहिर्नगरमार्गमतिबाह्य अतिक्रम्य । ६. संप्राप्तमुनिवनसीमसंगः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy