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________________ -२०८] उपासकाध्ययन अन्यदा पुनरिष्टदुष्टशातिप्रभावक्षाभ्यामात्मनः पैरैधितत्वमवबुध्य निजान्वयनिश्चये सति शारीरेषुपैचारेषु प्रवृत्तिरन्यथा निवृत्तिरित्याचरितसंगरस्ताभ्यां महामुनिमाहात्म्यमन्त्रवित्रासितदुरितनिशौचरायां मथुरायां तपस्यतः सोमदत्तस्य भगवतः सनीडे नीतस्तदङ्गमुद्राप्रायमात्मकायमसाय संजातानन्दनिकायस्तावुभावप्युपनेतारौ मातापितरौ सादरमुक्तियुक्तिभ्यां प्रतिबोध्यावधीरितोभयग्रन्थो निर्ग्रन्थश्चारणर्द्धिवृद्धिः समपादि । भवति चात्रा तृणकल्पः श्रीकल्पः कान्तालोकश्चितो चितालोकः । पुण्यर्जनश्च स्वजनः कामविदूरे नरे भवति ॥२०८॥ इत्युपासकाध्ययने वज्रकुमारस्य तपोग्रहणो नाम षोडशः कल्पः । पुनर्महामहोत्सवोत्साहितातोद्यवादनादमेदुरप्रासादकन्दरायामेतस्यामेव मथुरायां किल गोचराय चारणऋद्धियुगलं नगरमार्गे संगतगतिसर्ग सत् तत्र दित्रिरिवत्सर एवावस्थावसरे बालिकामेकां चिल्लचिकिन लोचनसनाथामनाथामापणाङ्गणचारिणों स्खलदमनविहारिणी निरीक्ष्य प्रतीक्ष्य पश्चाश्चरः सुनन्दनाभिधानगोचरो भगवानेवमवादोत्-'अहो, दुरालोकः खलु प्राणिनां कर्मविपाकः, यदस्यामेव दशायां क्लेशाय प्रभवति' इति । पुरश्चारीभगवानभिनन्दननामधारी-'तपःकल्पद्रुमोत्पादनन्दन सुनन्दनमुने, मैवं वादीः। एक बार इष्ट बन्धु-बान्धवोंके कहनेसे और दुष्ट जनोंके अनादरसे उसे पता चला कि मैं भास्करदेवका पुत्र नहीं हूँ, बल्कि उन्होंने मेरा पालन किया है, तो उसने प्रतिज्ञा की कि अपने वंशका निश्चय होजानेपर ही मैं अन्न-जल ग्रहण करूँगा अन्यथा मेरे सबका त्याग है । तब उसके पालक माता-पिता उसे मथुरा नगरीमें तपस्या करते हुए सोमदत्त मुनिके पास ले गये। मुनिकी शारीरिक आकृतिके तुल्य ही अपनी आकृतिको देखकर उसे बड़ा आनन्द हुआ। और उसने उन दोनों माता-पिताको समझा-बुझाकर अन्तरंग और बहिरंग परिग्रहका त्याग कर दिया और निम्रन्थ साधु बनकर चारणऋद्धिका स्वामी हो गया । किसीने ठीक कहा है कि 'जो मनुष्य काम-विकारसे दूर है उसके लिए लक्ष्मी तृणके समान है, एकत्र हुआ स्त्री-समुदाय चिताके आलोक समान हैं और कुटुम्बीजन राक्षसोंके समान हैं ॥२०८॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें वज्रकुमारके तप ग्रहण करनेका वर्णन करनेवाला सोलहवाँ कल्प समाप्त हुआ। एक बार मथुरा नगरीमें चारणऋद्धि के धारी दो मुनि मार्गमें चले जाते थे। उसी मार्ग में दो-तीन वर्षकी एक अनाथ बालिका जिसकी आँखें मैलसे भरी थीं, इधर-उधर भटकती माँगती खाती डोलती थी। उसे देखकर पीछे चलने वाले सुनन्दन नामके मुनि बोले-'जीवोंके कर्मका विपाक कोई नहीं जानता, देखो तो बेचारी यह बालिका इतनी-सी उम्रमें ही कष्ट भोगती है।' यह सुनकर आगे चलने वाले अभिनन्दन मुनि बोले-'सुनन्दन मुनि ! ऐसा मत कहो । ३. स्नानभोजनादौ । ४. प्रतिज्ञः। १. ज्ञातिमध्ये ये इष्टास्ते प्रज्ञां ददति, ये दुष्टास्ते निरादरं कुर्वन्ति । २. परपोषितत्वं । ३. स्नानभोजनादौ। ४. प्रतिज्ञः। ५. पापान्येव राक्षसाः यत्र । ६. ज्ञात्वा । ७. मृतकचितासदृशः। ८. राक्षसः । ९. आहारार्थम् । १०. वर्षद्वित्रिसमये। ११. दूषित । १२
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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