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________________ ८८ सोमदेव विरचित [कल्प १५, श्लो० २०७ध्यास्य विरविहायश्चरीपरिमलनम्लानमृणालजलेजमशोकदलशय्यादयितासाद्यविद्याधरीसुरतपरिमलवहलमिदमपवनलतास्थानं कन्दकविनोदपरिणताम्बरचरीचरणालतकोडितमंद स्तमालमलालवालालयमेवमिदं रमणीयमेतन्मनोहरमदश्च सुन्दरमटनीध्रतटमिति निध्यायन् समाचरितस्वैरविहारः पुनः प्राप्तहिमवगिरिप्राग्भारः खेचरीलोचनचन्द्रस्य पुरेन्द्रस्याङ्गवतोयुवतिप्रीतिधाम्नो गरुडवेगनाम्नो विद्याधरपतेरतिशयरूपनिरूपणपात्री प्रियपुत्र पवनवेगानामसङ्गां प्रालेयाचलमेखलाखलतिकलतालयनिलीनाङ्गां बहुरूपिणों नाम निपद्यां विद्यामाराधयन्तीमनयैवं विघ्नविघ्नया जाताजगररूपया-विद्यया निगीर्णवदनामुपलक्ष्य परोपकारविचक्षणस्ताय॑विद्यया तमेतल्लपनाविलतालुं मायाशयालुं वित्रासयामास । पवनवेगा तत्प्रत्यूहाभोगापगमानन्तरमेव विद्यायाः सिद्धिं प्रपद्य 'अवश्यमिह जन्मन्ययमेव मे कृतप्राणत्राणावेशः प्राणेशः' इति चेतस्यभिनिविश्य पुनरस्यैव नीहारमहीधरस्य नितम्वतीरिणीपर्यन्ते सूर्यप्रतिमां समाश्रितवतो भगवतस्तपःप्रभावसंपादितसमस्तसत्त्वव्यापदन्तस्य संयतस्य पादपीठोपकण्ठे पठतस्तवेयं सेत्स्यतीत्युपदेशावेशाभिनवमाराय वज्रकुमाराय गगनगम नाङ्गनाजीवितभूतामभिमतार्थसाधनपर्याप्ति प्राप्ति विद्यां वितीर्य निजनगर्या पर्यटत् । वज्रकुमारस्तथैव तत्सूरिसमक्षं फेनमालिनीकूले विद्यां प्रसाध्यासाध्यसाधनप्रवृद्धपराक्रमस्तमक्रमविक्रमाल्पीभूतदेवं पुरन्दरदेवं पितृव्यमव्याजमुच्छिद्य सद्यस्तां विजयोत्सवपरम्परावतीममरावतीं पुरमात्मपितरमखिलखचराचरितचरणसेवं भास्करदेवं निवेश्य वश्येन्द्रियः स्वयंवरव्याजेन विहिताभिलषितकान्तसंगामनङ्गसंगसंगतङ्गारसुभगां पवनवेगामपराश्चाम्बरचरपतिंवरा विवाह्य महाभागगृह्यो विहायश्चरचित्तचिन्तामात्रायासैस्तैस्तैर्विलासैः कालमतिवाहयामास । किया। एक बार वज्रकुमार अनेक विद्याधर कुमारोंके साथ विजयार्ध पर्वतकी शोभा देखता हुआ घूम रहा था। घूमते-घूमते वह हिमवान पर्वतपर जा पहुँचा। वहाँ विद्याधरोंके स्वामी गरुडवेग की अतिशय रूपवती कन्या पवनवेगा बहुरूपिणी विद्या साधती थी। वज्रकुमारने देखा कि विघ्न डालनेकी भावनासे वह विद्या अजगरका रूप बनाकर उस कन्याको निगला ही चाहती है। उस परोपकारीने तुरन्त ही गरुड़विद्याके द्वारा उसके मुखको चीर दिया। इस विघ्नके दूर होते ही पवनवेगाको विद्या सिद्ध हो गई। उसने संकल्प किया कि इस जन्ममें मेरे प्राणोंकी रक्षा करने वाला यही युवक मेरा स्वामी है। यह संकल्प करके उसने वज्रकुमारको इष्ट वस्तुकी सिद्धि करने वाली प्रज्ञप्ति नामकी विद्या प्रदान की और कहा कि इसी पहाड़के किनारेसे बहने वाली नदीके पास आतापनयोगसे स्थित, मुनि महाराजके चरणोंके समीपमें बैठकर पढ़ने मात्रसे तुम्हें यह विद्या सिद्ध हो जायेगी। यह कह कर वह अपने नगरको लौट गई । वज्र कुमारने उसके कहे अनुसार फेनमालिनी नदीके किनारे आचार्यके समक्ष विद्या सिद्ध की । इस विद्याके प्रभावसे उसमें असाध्य कामको भी साधनेकी शक्ति आ गई और इससे उसका पराक्रम और भी बढ़ गया। तब उसने अपने चाचा पुरन्दरदेवको मारकर अमरावती नगरीके राज्यासनपर अपने पिता भास्करदेवको बैठाया और स्वयंवरमें पवनवेगाके साथ अन्य विद्याधर कुमारियोंसे विवाह करके आनन्दपूर्वक दिन बिताने लगा। १. विहायश्चरी-आ० । विरहिणी। २. अशोकदलशय्यायां दयितेन भ; आसाद्या प्राप्या या विद्याधरी। ३. चिह्नितं । ४. स्थानम् । ५. -मलालवलय-अ० ज०। ६. पर्वत । ७. विघ्ननिघ्न-ब०। ८. मायाजगरसर्पम् । ९. नदी । १०. विद्याधरी ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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