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________________ सोमदेव विरचित [कल्प १७, श्लो० २०९यद्यपीयं गर्भसंभूता सती राजभेष्ठिपदप्रवृत्तं समुद्रदत्तं पितरं जातमात्रा तद्वियोगदुःखोपसदां धनदां मातरं प्रवर्धमाना च बन्धुजनमकाण्ड एव दर्शमी दशामानीय इदमवस्थान्तरमनुभवन्ती तिष्ठति, तथाप्यनया प्रौढयौवनयास्य मथुरानाथस्यौर्विलादेवीविनोदावसथस्य पूतिकवाहनस्य महीनस्याप्रमहिण्या भवितव्यम्' इत्यवोचत् । पतञ्च तत्रैव प्रस्तावे पिण्डपाताय हिण्डमानः शाक्यभिक्षुरुपश्रुत्यै 'नान्यथा मुनिभाषितम्' इति निर्विकल्पं संकल्प्य, स्वीकृत्य चैनामर्मिकामाहितविहारवसतिकामभिलषितार्नुहारैराहारैरवीवृधत् । जुहाव च बुद्धदासीति परिजनपरिहासतन्त्रेण गोत्रण। . ततो गतेषु केषुचिद्वर्षेषु भ्रमरकभङ्गाभिनयनभरते ध्रुविभ्रमारम्भोपाध्यायस्थानिनि लोचनविचारचातुर्याचार्ये चतुरोक्तिचातुरीप्रचारगुरुणि बिम्बाधरविकारसौन्दर्यकादम्बरीयोगे निम्नोन्नतप्रदेशप्रकाशनशिल्पिनि मनसिजगजमदोद्दीपनपिण्डिपण्डित शृङ्गारगर्भगतिरहस्योपदेशिनि समस्तभुवनमनोमोहनसिद्धौषधे प्रतिदिनप्रादुर्भावसविधे सति यौवने सा रूपसंपन्महीयसी बुद्धदासी सोत्तालमुत्तुङ्गतमङ्गटङ्गोत्सङ्गसंगता तं भ्रमणिकया कृतविहारोपान्तागमनं पूतिकवाहनं राजानमदर्शत् । राजा च ताम् । राजा 'अलकवलयावर्तभ्रान्ता विलोचनवीचिका प्रसरविधुरा मन्दोद्योगा स्तनद्वयसैकते । त्रिवलिवलनश्रान्ता नाभौ पुनश्च निमजना दिह हि सै'रिति प्रायेणैवं मतिर्मम वर्तते ॥२०६॥ यद्यपि जब यह बालिका गर्भमें आई तो राजश्रेष्ठीके पदपर प्रतिष्ठित इसका पिता समुद्रदत्त मर गया, जब यह जन्मी. तो पतिके वियोगमें इसकी माता धनदा चल बसी, बड़ी हुई तो असमयमें ही बन्धुबान्धव मर गये और अब यह इस हालतमें है। तथापि युवती होनेपर यह इसी मथुरा नगरीके राजा पूतिकवाहनकी पटरानी होगी।' वहींपर भोजनके लिए घूमते हुए बौद्धभिक्षुने इस बातचीतको सुना । उसने सोचा कि मुनि झूठ नहीं बोलते। अतः वह उस बालिकाको अपने विहारमें लेगया और उसको रुचिके अनुसार खान-पान देकर उसे बड़ा किया। सब लोग हँसीमें उसे बुद्धदासी कहते थे। धीरे-धीरे उसमें यौवनका प्रादुर्भाव हो चला । उसकी भृकुटियोंमें विलास आ चला, लोचनोंमें कुछ अजीब चंचलता दृष्टिगोचर होने लगी, उसकी बातोंमें भी चातुर्य झलकने लगा, ओष्ठोंपर अपूर्व मादकता छा गई, अंग-प्रत्यङ्गमें यौवनकी शिल्पकलाका चातुर्य दिखाई पड़ने लगा, चालमें मादकता आगई। कुछ वर्ष बीतनेपर एक दिन वह रूपवती बुद्धदासी विहारके एक ऊँचे शिखरपर चढ़ी हुई थी। घूमते-घूमते राजा पूतिकवाहन उस विहारके करीब आ गया । दोनोंने एक दूसरेको देखा। . देखते ही राजा काममोहित हो गया और विचारने लगा-'इस स्त्रीरूपी नदीमें प्रायः मेरी मति इस प्रकारकी हो रही है--प्रथम तो वह उसके कुटिल केश पाशके गोलाकार जूड़ेरूपी भँवरमें पड़कर भ्रान्त हो गई, फिर नेत्ररूपी लहरोंके तूफानमें पड़कर पीड़ित हुई, उसके बाद दोनों स्तनरूपी बालुकामय किनारों पर पहुँचकर उसकी दौड़धूप शिथिल पड़ गई, पुनः उदरकी तीन रेखाओंमें भ्रमण करनेसे थक गई और पुनः नाभिमें डूब जानेसे क्लान्त हो गई ॥२०६ ॥ M १. मरणावस्थाम् । २. भिक्षायें। ३. श्रुत्वा। ४. सदृशैः। ५. आकारितवान् । ६. नाम्ना । ७. मलक। ८. मदिरा । ९. समीपे । १०. कल्लोल । ११. स्त्रीनद्यां मम मतिरीदशी वर्तते ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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