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________________ -२०६ ] उपासकाध्ययन मनस्कारेण समस्तसत्त्वस्वरूपनिरूपणस्वाध्यायध्वनिसिद्धौषधिसविधसाधितवनदेवतानिकरण मूर्तिमतेव धर्मेण विनेयदैघिकेयमित्रेण सुमित्रेण मुनिनालंकृतालवालवलयमेतद्ब्रह्मवर्चसमाहात्म्यादामूलमाचूलं चैकं चूतमुल्लसल्लवलीफलगुलुच्छस्फीतमवलोक्य च्छेकच्छात्रहस्ते कलत्रस्य पिकप्रियप्रसवफलप्रतोली प्रहृत्य ततो भगवतोऽवधिबोधपयोधिमध्यसंनिधीयमानसकलकलाकलापरत्नाद्धर्मश्रवणावसरप्रयत्नात्समायातं सहस्रारकल्पे सूर्यविमानसंभूतं सूर्यचराभिधानानुगतमत्यल्पविभवपरिप्लुतमात्मगोचरं भवान्तरमाकर्योदीर्णजातिस्मरभावः स्वप्नसमासादितसाम्राज्यसमानसारात्संसाराद्विरज्य मनोजविजयप्राज्यां प्रव्रज्यामासज्य प्रबुद्धसिद्धान्तहृदयो मगधविषये सोपारपुरपर्यन्तधाम्नि नाभिगिरिनाम्नि महीधरे सम्यग्योगातापनयोगधरो बभूव । . तदनु सा तद्वियोगातकोवृत्तचित्ता यज्ञदत्ता तदन्तेवासिभ्यः सोमदत्तव्रतव्यतिफरमात्मखेदकरमनुभूय प्रसूय च समये स्तनन्धयं पुनस्तमादाय प्रयाय च तं भूमिभृतम् 'अहो कूटकपटपिटक मन्मनोवनदाहदावपाबकनिःस्निग्ध दुर्विदग्ध, यदीमं दिगम्बरप्रतिच्छन्दमवच्छिंद्य स्वच्छं येच्छयागच्छसि तदाऽऽगच्छ । नो चेद् गृहाणेनमात्मनो नन्दनम्' इति व्याहृत्यास्योर्ध्वशो" भगवतः पुरतः शिलातले बालकमुत्सृज्य विजहार निजं निवासम् । भगवानपि तेन सुतेन दृषदः प्लोषोत्कर्षकलुषत्वाद्विष्टरी कृतचरणवर्गः सोपसर्गस्तथैवावतस्थे । हुए उसने जलवाहिनी नामकी नदाके तटके निकट फैले हुए कालिदास नामके बड़े भारी जंगल में सुमित्र नामके मुनिको देखा। उत्कृष्ट तपके करनेसे उनका शरीर पवित्र हो गया था, समस्त शास्त्रोंके सुननेसे उनका मनोबल बढ़ गया था। वे ऐसे प्रतीत होते थे मानो मूर्तिमान् धर्म है । उनके ब्रह्मचर्यके तेजके प्रतापसे एक आमका वृक्ष जड़से लेकर चोटी तक सुन्दर फलोंसे लदा हुआ था। पुरोहितने एक छात्रके द्वारा अपनी पत्नीके लिए आम्रफल भेज दिया और आप धर्म श्रवण करनेके लिए अवधिज्ञानी मुनिके समीप बैठ गया। मुनिने बतलाया कि वह पहले जन्ममें सहस्रार स्वर्गके सूर्य विमानमें बहुत थोड़े वैभवका स्वामी सूर्यचर नामका देव था। पूर्वजन्मका वृत्तान्त सुनकर उसे जातिस्मरण हो आया । स्वप्नमें प्राप्त हुए साम्राज्यके तुल्य इस संसारसे विरक्त होकर उसने कामको जीतने में समर्थ जिन-दीक्षा ले ली, और शास्त्रोंके रहस्य को जानकर मगधदेशके सोपारपुरके निकटवर्ती नाभिगिरि पर्वतपर आतापनयोगसे स्थित होगया । उधर यज्ञदत्ताको जब छात्रोंसे सोमदत्तके दीक्षा ग्रहण करनेका समाचार मिला तो उसे बड़ा खेद हुआ । उसके वियोगसे उसका चित्त उखड़ गया । समयपर उसने एक पुत्रको जन्म दिया और उसे लेकर उसी पर्वतपर आई जहाँ सोमदत्त आतापनयोगसे स्थित था। उसे देखकर बोली-'अरे मेरे मन रूपी वनको जलानेके लिए वनकी आगके समान, निःस्नेही, मूर्ख कपटी ! यदि इस दिगम्बर वेषको छोड़कर स्वेच्छासे चलता हो तो चल, नहीं तो इस अपने पुत्रको ले ।' ऐसा कहकर उस आतापनयोगसे स्थित मुनिके सामने शिलापर बालकको छोड़कर अपने घर चली गई । शिला तप रही थी अतः बच्चा उनके चरणोंपर लिटा हुआ था और मुनि इस उपसर्गके साथ ज्योंके त्यों निश्चल खड़े थे। १. कमलसूर्येण । २. माहूहीत्म्या-अ० ज० मु० । ३. चतुर । ४. संप्रेष्य । ५. सहितम् । ६. गृहीत्वा । ७. छात्रेभ्यः । ८. रूपम् । ९. मुक्त्वा। १०. स्वेच्छयागच्छसि-आ० । ११. उद्भवस्य-ऊर्वजानो। १२. शिशोराधारीभूतपादः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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