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________________ -२०० ] उपासकाध्ययन ८१ जगाम। चेलिनीमहादेवी पुत्रं मित्रेण सत्रमुपढौकमानमवेक्ष्य तदभिप्रायपरीक्षार्थ सरागं वीतरागं चासनमयच्छत् । वारिषेणस्तेन समं चरमोपचारं विष्टरमलंकृत्य 'अम्ब, समाहूयतां समस्ता अप्यात्मीयाः स्नुषाः। तदनु वनदेवता इव प्रसूनोत्तंसोत्तरङ्गितकुन्तलारामाः, कल्पलता इव मणिभूषणरमणीयाङ्गनिर्गमाः, प्रावृष इव समुन्नद्धपयोधराविद्धमध्यभागाः, सकलजगल्लावण्यलवलिपिलिखिता इव सुभगभोगायतनाभोगाः, कङ्केल्लिकाननक्षितय इव पादपल्लवोल्लासितविहारविषयाः, कमलिन्य इव मणिमञ्जीरमणितोन्मदमरालमण्डलस्खलितचलेनजलेशयाः, स्वकीयरूपसंपत्तिरस्कृतत्रिभुवनरामारामणीयकाः सलीलमहमहमिकोत्सुकाः समागत्य समन्तात्परिबवः पुण्यदेवता इव ताः स्ववासिन्यः । 'अम्ब, मद्भातृजाया सुदत्यप्याकार्यताम्। ततः सन्ध्येव धातुरक्ताम्बरचराटोपा, तपःश्रीरिव विलुप्तकुन्तलकलापा, भव्यजनमतिरिव विभ्रमभ्रांशिदर्शना, हिमोन्मथिता कमलिनीव क्षामच्छायापघना, शरदिव दीनपयोधरभरा, स्वष्वाङ्गकरङ्का कृतिरिव प्रकटकीर्कंसनिकरा सकलसंसारसुखव्यावृत्तिनीतिमूर्तिमती वैराग्य. स्थितिरिव विवेश। पुष्पदन्तहृदयकन्दलोल्लासवसुमती सुदती वारिषेणोऽवधार्य 'मित्र, सेयं तव प्रणयिनी करनी चाहिए।' ऐसा सोचकर भागते हुए मित्रको रोककर उसको स्थिर करनेके लिए वे अपने पिताके घर गये। चेलनी रानीने मित्रके साथ अपने पुत्रको आता हुआ देखकर उसके मनकी परीक्षा करनेके लिए दो आसन बिछा दिये। उनमें एक आसन रागियोंके योग्य था और दूसरा विरागियोंके योग्य । वारिषेण अपने मित्रके साथ विरागियोंके योग्य आसनपर बैठ गया और बोला'माता ! अपनी सब बहुओंको बुलाओ।' अपनी रूप-सम्पदासे तीनों लोकोंकी सुन्दर स्त्रियोंको तिरस्कृत करनेवाली सभी बहुएँ बड़ी उत्सुकताके साथ आकर चारों ओर बैठ गईं। केशपाशमें गूंथे गये फूलोंसे वे वनदेवताके समान प्रतीत होती थीं, उनके अंग मणियोंके भूषणोंसे शोभित थे अतः वे कल्पलताके तुल्य प्रतीत होती थीं, उन्नत पयोधरों (स्तनों) से उनका मध्यभाग पराजित हो गया था अर्थात् मध्यभाग कृश था, अतः वे वर्षाऋतुके तुल्य प्रतीत होती थी क्योंकि वर्षाऋतुमें भी आकाशमें पयोधर ( मेघ ) उमड़े रहते हैं। उसके बाद वारिषेण बोले- 'माता ! मेरी भ्रातृवधू सुदतीको भी बुलाओ।' - आज्ञा पाते ही सुदती भी आ गई। उसके केशकलाप अस्त-व्यस्त थे, हिमपातसे कुमुलाई हुई कमलिनीकी तरह उसकी मुखश्री म्लान हो गई थी। शरीरमें हड्डियाँ ही दिखाई देती थीं। वह ऐसी मालूम देती थी मानो संसारके समस्त सुखोंसे उदासीन मूर्तिमती वैराग्यविभूति ही है। पुष्पदन्तके हृदयरूपी नवांकुरके उल्लासके लिए पृथ्वीके तुल्य सुदतीको जानकर वारिषेण १. आगच्छन्तम् । २. वीतरागासनम् । ३. अशोकवृक्षवनभूमयः । ४. शब्दित । ५. चलना चरणा एव जलेशयानि यासां ताः । ६. गेरुरक्तवस्त्रेण चरः चपलः आटोगो यस्याः सा। ७. खट्वाङ्गमेव करङ्कः । ८. अस्थि ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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