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________________ ८२ सोमदेव विरचित [कल्प १४, श्लो० -२०१ यन्निमित्तमद्यापि न संपद्यसे मनोमुनिरिति। एताश्चैवंविधकायास्तव भ्रातृजायाः, तथैते च वयं तव समक्षोदयं समाचरिताभिजातजनोचितचरिताः' । पुष्पदन्तः स्नानानुलेपवसनाभरणप्रसून_____ताम्बूलवासविधिना क्षणमात्रमेतत् । आधेयभावसुभगं वपुरङ्गनानां ___ नैसर्गिकी तु किमिव स्थितिरस्य वाच्या ॥२०१॥ इत्यसंशयमाशय्य स्त्रैणेषु सुखकरणेषु विचिकित्सासज्जा लज्जामभिनीय 'हंहो निकोमनिरुद्धमकरध्वजोद्धवविधुरबान्धव संसारसुखसरोजोत्सारनीहारायमाणचरण वारिषेण, पर्याप्तमत्रावस्थानेन । प्रकामं शेकलितकुसुमात्ररसरहस्य वयस्य, इदानी यथार्थनिर्वेदावनिर्मनोमुनिरस्मीति चाधाय विशुद्धहृदयौ द्वावपि तौ चेलिनीमहादेवीमभिनन्द्योपसय च गुरुपादोपसल्यं निःशल्याशयौ साधु तपश्चक्रतुः । भवति चात्र श्लोकः सुदतीसंगमासक्तं पुष्पदन्तं तपस्विनम् । वारिणः कृतत्राणः स्थापयामास संयमे ॥२०२॥ इत्युपासकाध्ययने स्थितिकारकीर्तनो नाम चतुर्दशः कल्पः । चैत्यैश्चैत्यालयानैस्तपोभिर्विविधात्मकैः । पूजामहाध्वजाद्यैश्च कुर्यान्मार्गप्रभावनम् ॥२०३॥ बोले-'मित्र ! यही तुम्हारी वह प्रियतमा है जिसके कारण अबतक भी तुम मनसे साधु नहीं बन सके हो । और ये सब तुम्हारी भ्रातृवधू हैं । हम सब तुम्हारी सेवाके लिए तैयार हैं। पुष्पदन्त सोचने लगा-'स्त्रियोंका शरीर स्नान, लेप, वस्त्र, आभूषण, फूल, पान, सुगन्ध आदिके द्वारा क्षणमात्र के लिए सुन्दर हो जाता है। यदि वह अपनी स्वाभाविक स्थितिमें रहे तब तो उसकी दशाका कहना ही क्या है ॥२०१॥ ऐसा निःसन्देह विचारकर तथा स्त्रियोंके विषयमें म्लानिपूर्ण लज्जाका अभिनय करता हुआ वह बोला-'हे कामजेता और संसारके सुखरूपी कमलोंके लिए बर्फके समान वारिषेण ! यहाँ ठहरना वृथा है। कामरसके रहस्यको खण्ड-खण्ड कर डालनेवाले मेरे मित्र ! इस समय मुझे सच्चा वैराग्य हुआ है और मैं मनसे मुनि हूँ।' दोनों विशुद्ध हृदय मित्रोंने रानी चेलनीका अभिनन्दन किया और गुरुके चरणोंमें आकर निशल्य होकर तपस्यामें लीन हो गये। इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है 'वारिषेणने सुदतीमें आसक्त तपस्वी पुष्पदन्तकी रक्षा की और उसे संयममें लगाया ॥२०२॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें स्थितिकरणका वर्णन करनेवाला चौदहवाँ कल्प समाप्त हुआ। [अब प्रभावना अंगको बतलाते हैं-] जिनबिम्ब और जिनालयोंकी स्थापनाके द्वारा, ज्ञानके द्वारा, तपके द्वारा तथा अनेक प्रकारकी महाध्वज आदि पूजाओंके द्वारा जैनधर्मकी प्रभावना करना चाहिये ॥२०३॥ १. विचिन्त्य। २. अतिशयेन । ३. दर्प। ४. विनाशे हिममिव चारित्रं यस्य । ५. खण्डित । ६. उक्त्वा । ७. प्राप्य । ८. समीपम् । ९. रक्षणः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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