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________________ सोमदेव विरचित [कल्प १४, श्लो० १६६लीलाविलासविलसन्नयनोत्पलायाः स्फारस्मरोत्तरलिताधरपल्लवाया। ___उत्तुङ्गपीवरपयोधरमण्डलाया __स्तस्या मया सह कदा ननु संगमः स्यात् ॥१६॥ किं च । चित्रालेखनकर्मभिर्मनसिजन्यापारसारामृतै पुढाभ्यासपुर:स्थितप्रियतमापादप्रणामक्रमैः। स्वप्ने 'संगमविप्रयोगविषयप्रीत्यप्रमोदागमै ___ रित्थं वेषमुनिर्दिनानि गमयत्युत्कण्ठितः कानने ॥२०॥ इति निर्बन्धेन ध्यायन् द्वादश समाः समानषीत् ।। शुरदेवभट्टारकोऽप्याभ्यां सह तेषु-तेषु विषयेषु तीर्थकृतां पञ्चकल्याणमङ्गलानि स्थानानि वन्दित्वा पुनर्विहारवशात्तत्रैव जिनायतनोत्तसितोपान्तशैलचूले पञ्चशैलपुरे समागत्यात्मनो वारिषेण ऋषेश्च तदिवसे पर्युपासितोपवासत्वात्तं पुष्पदन्तमेकाकिनमेव प्रत्यवसानायादिदेश। तदर्थमादिष्टेन च तेन चिन्तितं चिरात्कालात्खल्वेकस्मादपमृत्योर्जीवनद्धरितो ऽस्मि । संप्रति हि मे नूनमनूनानि पुण्यान्यवेक्ष्य दीक्षां मुमुक्षुणा मञ्ज पाशपरिक्षेपक्षरितेनेव पक्षिणा पलायितुमारब्धम् । वारिषेणस्तस्य तथा प्रस्थानात्कृतोदर्क वितर्त्य 'अवश्यमयं जिनरूपं जिहासुरिव सौत्सुक्यं विक्रमते, तदेष कषायमुष्यमाणधिषणः समयप्रतिपालनाधिकरणैर्न भवत्युपेक्षणीयः' इत्यनुध्यायावा तमनुरुध्यैतत्स्थापनाय जनकनिकेतनं कभी वह सोचता_ 'जिसके नेत्रकमल लीलाके विलाससे शोभित हैं, अधरपल्लव कामके वेगसे काँपते हैं, उरोज उन्नत और स्थूल हैं, उसका मेरे साथ समागम कब होगा' ॥१९९॥ कभी वह चित्र बनाता, कभी अत्यन्त अभ्यासके कारण यह अनुभव करता कि उसकी प्रियतमा सामने खड़ी है और वह उसके चरणोंमें प्रणाम कर रहा है। कभी स्वप्नमें संगमका सुख भोगता तो कभी वियोगका कष्ट उठाता । इस प्रकार वह मुनिवेषी बड़ी उत्कण्ठाके साथ जंगलमें दिन बिताता था ॥२००॥ ऐसा करते-करते बारह वर्ष बीत गये। ___एक बार शूरदेव गुरु अपने शिष्य वारिषेण और पुष्पदन्तके साथ तीर्थकरोंके पञ्चकल्याणकोंके स्थानोंकी वन्दना करके वूमते-घूमते जिनमन्दिरोंसे सुशोभित उसी पञ्चशैलपुरमें आकर ठहरे। उस दिन वारिषेणमुनिका प्रोषधोपवास था अतः उन्होंने पुष्पदन्तको अकेले ही जाकर भोजन कर आनेकी आज्ञा दी। आज्ञा पाकर पुष्पदन्तने सोचा कि बहुत कालके पश्चात् इस अपमृत्युसे जीवनका उद्धार हुआ है। आज मेरे बहुत पुण्यका उदय है।' यह सोच दीक्षाको छोड़नेकी.इच्छासे, बन्धनमुक्त हुए पक्षीकी तरह वह वहाँ से भागा। वारिषेणने उसे इस तरहसे भागते हुए देखकर विचार किया कि 'यह अवश्य ही जिनदीक्षा छोड़ देनेके लिए उत्सुक जान पड़ता है। इसकी बुद्धि मोहसे भ्रष्ट हो गई है, अतः जिनागमके पालकोंको इसकी उपेक्षा नहीं १. यदा स्वप्ने संगमो भवति तद्विषये प्रीत्यागमो भवति । यदा तु स्वप्नविप्रयोगो भवति तद्विषयेऽप्रमोदागमो भवति । २. वर्षाणि । ३. राजगहनगरे । ४. सेवित । ५. आहारार्थ । ६. पुष्पदन्तेन । ७. दीक्षां मोक्तुमिच्छना । ८. शीघ्र मार्ग रुद्वा ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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