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________________ ७० सोमदेव विरचित [कल्प ११, श्लो० १८३सापि जिनसमयोपदेशरसैरावती रेवतीमं व्रतान्तोपक्रमं कुतोऽपि जैनाभासप्रतिभातोऽवबुध्य सिद्धान्ते खलु चतुर्विंशतिरेव तीर्थकराः, ते चाधुना सिद्धिवधूसौधमध्यविहाराः, तदेषोऽपर एव कोऽपि मायाचारी तद्र पधारी' इति चावधार्याविपर्यस्तमतिः पर्यात्मधामन्येव प्रवर्तितधर्मकर्मचक्रे सुखेनासांचक्रे । पुनर्वहुकूटकपटमतिर्देशयतिस्ताभिर्विविधप्रकृतिभिराकृतिभिस्तदास्वनितमक्षुभितमवगत्योपात्तमासोपवासिवेषः क्रियामात्रानुमेयनिखिलकरणोन्मेपो गोचराय तदालयं प्रविष्टस्तया स्वयमेव यथाविधिप्रतिपन्नचेष्टस्तथापि विद्याबलादनल नाशवमनादिविकारप्रबलात्कृतानेकमानसोद्वेजनवैयात्यो रेवत्याः क्वचिदपि मनोमूढतामपश्यन् , 'अम्ब, सर्वाम्बरचरचित्तालंकारसम्यक्त्वरत्नाकरक्षोणि दक्षिणमथुरायां प्रसिद्धावसथः सकलगुणमणिनिर्माणविदूरावनिः श्रीमुनिगुप्तमुनिर्मदर्पितरचनैर्वचनैः परिमुषिताशेषकल्मषसंवनैरखिलकल्याणपरम्पराविरोचनैर्भवतीं रेवतीमभिनन्दयति । रेवती भक्तिरसवशोल्लसल्लपनरागाभिरामं ससंभ्रमं च सप्तप्रचारोपसदैः पदेस्तां दिशमाश्रित्य श्रुतविधानेन विहितप्रणामा प्रमोद मानमनःपरिणामा तदर्पितान्याशोर्वचनान्यादिता।... भवति चात्र श्लोकः कादम्बा_गोसिंहपीठाधिपतिषु स्वयम् । आगतेष्वप्यभून्नैषा रेवती मृढतावती ॥१८३॥ इत्युपासकाध्ययनेऽमूढतापौढिपरिवृढो नामैकादशः कल्पः । जलकी नदीके तुल्य रेवती रानी किसी जैनाभाससे इस समाचारको जानकर विचारने लगी कि आगममें चौबीस ही तीर्थङ्कर बतलाये हैं और वे सब इस समय मुक्तिरूपी वधूके महलमें विहार करते हैं। इसलिए यह कोई मायाचारी है जो उनका रूप धारण किये हुए है। ऐसा निर्णय करके वह अपने घरमें ही धर्मकर्म करती हुई सुखपूर्वक बैठी रही। इसके बाद अनेक रूप धरनेमें चतुर वह क्षुल्लक अनेक रूपोंके द्वारा भी रेवती रानीको चञ्चल हुआ न देखकर, एक मासका उपवास करनेवाले साधुका वेष बनाकर अत्यन्त शिथिल इन्द्रियोंके साथ आहारके लिए रेवती रानीके घरपर आया। रेवतीने स्वयं ही विधिके अनुसार सब काम किया, किन्तु उस क्षुल्लकने विद्याके बलसे कभी अग्निको बुझाकर और कभी वमन आदि करके उसके मनको उद्विग्न करनेका बहुत प्रयास किया, फिर भी वह उद्विग्न नहीं हुई। यह देखकर वह बोला—'माता ! दक्षिण मथुरामें विराजमान सकल गुणोंसे भूषित श्री मुनिगुप्त मुनि मेरे द्वारा समस्त पापसे रहित कल्याणकारक वचनोंसे आपका अभिनन्दन करते हैं।' ___ यह सुनते ही रेवती रानीका मुख भक्तिरसके रागसे रंजित हो उठा। उसने तत्काल ही दक्षिण दिशामें सात पग चलकर शास्त्रानुसार प्रणाम किया और हर्षसे गद्गद होकर मुनिके द्वारा दिये गये आशीर्वादको स्वीकार किया। इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है'ब्रह्मा, विष्णु, शिव और जिनके स्वयं पधारने पर भी रेवती रानी मूर्ख नहीं बनी ॥१८३॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें अमूढ़ता अंगका वर्णन करनेवाला कल्प समाप्त हुआ। १. नदी। २. परिसामस्त्येन आत्मधामनि । ३. आहारार्थं । ४. धूर्तत्व। ५. सम्बन्धः । ६, शोभमानैः । ७. गृहीतवती ।-न्यापादिता आ० । ८. हंस । ९. गरुड़ । 'कादम्ब"। आगतेष्वपि नैवा भूद रेवती""धर्मरत्ना०-७२५०।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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