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________________ ७१ -१८८ ] उपासकाध्ययन उपगृहस्थितीकारी यथाशक्तिप्रभावनम् । वात्सल्यं च भवन्त्येते गुणाः सम्यक्त्वसंपदे ॥१८४॥ तत्र-क्षान्त्या सत्येन शौचेन मार्दवेनार्जवेन च । तपोभिः संयमैर्दानैः कुर्यात्समयबृंहणम् ॥१८॥ सवित्रीव तनूजानामपराधं सधर्मसु । दैवप्रमादसंपन्नं निगृहेद् गुणसंपदा ॥१८६॥ अशक्तस्यापराधेन किं धर्मो मलिनो भवेत् । न हि भेके मृते याति पयोधिः पूतिगन्धिताम् ॥१८७॥ दोषं गृहति नो जातं यस्तु धर्म न हयेत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्वं जिनागमबहिस्थिते ॥१८॥ [अब उपगृहन अंगको बतलाते हैंउपगूहन, स्थितिकरण, शक्तिके अनुसार प्रभावना और वात्सल्य ये गुण सम्यक्त्व रूपी सम्पदाके लिए होते हैं ॥१८४॥ क्षमा, सत्य, शौच, मार्दव, आर्जव, तप, संयम और दानके द्वारा धर्मको वृद्धि करनी चाहिए । तथा जैसे माता अपने पुत्रोंके अपराधको छिपाती है वैसे ही यदि साधर्मियोंमेंसे किसीसे दैववश या प्रमाद वश कोई अपराध बन गया हो तो उसे गुण सम्पदासे छिपाना चाहिए। क्या असमर्थ मनुप्यके द्वारा की गई गल्तीसे धर्म मलिन हो सकता है ? मेढ़कके मर जानेसे समुद्र दुर्गन्धित नहीं हो जाता ॥ जो न तो दोषको ढाँकता है और न धर्मकी वृद्धि करता है, वह जिनागमका पालक नहीं है और उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति होना भी दुष्कर है ॥१८५-१८८॥ भावार्थ-इस गुणके दो नाम हैं एक उपबृंहण और दूसरा उपगूहन । अपनी आत्माकी शक्तिको बढ़ाना या उसे दुर्बल न होने देना उपबृंहण कहलाता है । जनतामें धर्मका उत्कर्ष करना भी उपबृंहण गुण कहलाता है। तथा यदि किसी साधर्मो बन्धुसे कभी कोई ग़ल्ती बन गई हो तो उसे प्रकट न होने देना उपगृहन हैं। ये दोनों एक ही गुणके दो नाम दो कार्योंकी अपेक्षासे रख दिये गये हैं, वास्तवमें ये दोनों एक ही हैं, क्योंकि उपगृहनके बिना उपबृंहण नहीं होता । यदि छोटी मोटो भूलोंके लिए भी साधर्मी भाइयोंके साथ कड़ाई बरती जायेगी और उन्हें जाति और धर्मसे वंचित कर दिया जायेगा तो उससे धर्मकी हानि ही होगी, क्योंकि धार्मिक पुरुषोंके विना धर्म कैसे ठहर सकता है । अतः सम्यग्दृष्टिको समझदार माताके समान साधर्मी भाइयोंसे व्यवहार करना चाहिए । जैसे समझदार माता एक ओर इस बातका भी ध्यान रखती है कि उसकी सन्तान कुमार्गगामी न हो जाये और दूसरी ओर उसकी गल्तियोंको ढाँककर उसकी बदनामी भी नहीं होने देती तथा एकान्तमें उसे समझा बुझाकर उसे क्षमा कर देती है, वैसा ही भव अपराधी भाइयोंके प्रति भी होना चाहिए। जो पुरुष इस तरहका व्यवहार करते हैं उनमें ही सम्यक्त्व गुण प्रकट होता है । किन्तु दोषोंका उपगूहन करनेका यह आशय नहीं है कि दोषी दोष करता रहे और धर्म प्रेमवश दूसरे उस दोषको ढाँकते ही रहें। दैव या प्रमादवश हो गये किसी १. मातृवत् । 'सवित्रीव स्वपुत्रेषु योऽपराधं न बाधते । दैवात्प्रमादात् संभूतं साधूनां सोऽधमः पुमान् ॥४३।। बालिशस्यापराधेन मलिनं स्यान्न शासनम् । न हि मीने मृते याति पयोधिः पूतिपूरिताम् ॥४४॥-प्रबोधसार ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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