SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -१८२] उपासकाध्ययन हेरम्ब-भिगिरिटि-प्रभृति-पारिषदपरिषत्परिकल्प्यमानबलिविधानम् , अहिर्बुध्नावतरनिधानमाकारमनुकृत्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास । ___सापि स्याद्वादसरस्वतीसुरभिसंभावनबै ल्लवी वरुणमहीशमहादेवी इमां जनश्रुति कुतश्चित्पश्चिमप्रतोलिसृताद्विपश्चितो निश्चित्य, निशम्यन्ते खलु प्रवचने तपःप्रत्यवायवार्ताs भद्रा रुद्रास्ते पुनः संप्रति स्वकीयकर्मणां विपाकात्कालिन्दीसोदरोदरगर्तवर्तिनः संजाताः। तदयमपर एव कश्चिनरेन्द्र विद्याविनोदाविदग्धहृदयमर्दी कपर्दीति च प्रपद्य निःसंदिग्धबोधा समासिष्ट । पुनः स्वापतेयेशदिशि विश्वंभरातलादूर्ध्वम् , अयोमुखासनदशसहस्रार्धावकृष्टम् , एकेन्द्रनीलशिलावर्तुलाधिष्ठानोत्कृष्टम,अखिलंगतिगर्तोत्तरणमार्गेरिव सोपानसर्गश्चतुर्दिशमुपाहितावतारम्, अनर्घद्रुघणमणिश्लाघ्योनतनवप्राकारान्तराचरितस्पष्टाष्टविधवसुंधरम्, अनवधिनिर्माणमाणिक्यसूत्रितत्रिमेखलालंकारकण्ठीरपीठप्रतिष्ठपरमेष्ठिप्रतिममशेषतः समासीनद्वादशसभान्तरालविलसन्निलम्पाने काशोकानोकहप्रमुखप्रातिहार्योपशोभितम्, ईषदुन्मिषदनिमिषोद्यानप्रसूनोपहारहरिचन्दनामोदसनाथगन्धकुटीसमेतम्, अनेकमानस्तम्भतडागतोरणस्तूपध्वजधूपं निपनिधाननिर्भरमुरगनरानिमिषनायकानीकानीतमहामहोत्सवप्रसरम्,अभितो भवसेनप्रभृत्याहंताभासप्रभावितयात्राधिकरणं समवशरणं विस्तार्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयांमास। समय उपस्थित कर दिया था। कार्तिकेय, कुम्भ, निकुम्भ, गणेश आदि उनकी पूजा करते थे। इस प्रकार रुद्रका रूप धारण करके उस विद्याधरने समस्त नगरको क्षोभित कर दिया । स्याद्वादवाणी रूपी कामधेनुको दुहनेवाली रेवती महारानीने भी पश्चिम दिशाके मार्गसे आनेवाले किसी ब्राह्मणसे उक्त समाचार सुना। वह सोचने लगी कि शास्त्रमें तपोभ्रष्ट ऋषियोंसे रुद्रोंकी उत्पत्ति सुनी जाती है। किन्तु इस समय तो वे सब अपने-अपने कर्मोंके उदयसे यमराजके उदरमें चले गये। इस लिए यह कोई इन्द्रजाल विद्याके द्वारा मूर्ख मनुष्योंके हृदयोंको फुसलानेवाला दूसरा ही रुद्र है ऐसा निर्णय करके वह रह गई। इसके बाद उस विद्याधरने उत्तर दिशामें जिनेन्द्रदेवके समवशरणकी रचना की । धरातलसे पाँच हजार धनुषकी ऊँचाई पर एक इन्द्रनीलमणिकी गोलाकार उसकी भूमि थी । उस तक पहुँचनेके लिए चारों दिशाओं में सीढ़ियाँ बनी हुई थीं जो ऐसी प्रतीत होती थीं कि मानो चारों गतिरूपी गड्ढोंसे निकलनेके ये मार्ग हैं। बहुमूल्य मणिसे निर्मित नौ ऊँचे प्राकार बने थे जिनके मध्यमें आठ भूमियाँ थीं। माणिक्यसे बनी हुई तीन कटनियोंसे सुशोभित सिंहासन पर वह परमेष्ठी की तरह विराजमान था। चारों ओर बारह सभाएँ लगी थी और उनके बीचमें अशोक वृक्ष आदि प्रातिहार्य थे । अनेक गन्धकुटी थीं, जो देवोद्यानके अधखिले हुए पुष्पोंसे और हरिचन्दनकी सुगन्धसे युक्त थीं । अनेक मानस्तम्भ, तालाब, तोरण, स्तूप, ध्वजा, धूपघट और निधियाँ वहाँ विराजमान थीं । तिर्यञ्च मनुष्य और देवोंके स्वामियोंकी सेनाके द्वारा वहाँ महामहोत्सव हो रहा था। उससे प्रभावित होकर भवसेन आदि जैनाभास वहाँ यात्राके लिए आ रहे थे । ऐसे समवशरणकी रचना करके उस विद्याधरने समस्त नगरमें हलचल मचा दी। जिनागमके उपदेशरूपी १. रुद्रावतार । २. कामधेनु । ३. गोपी । ४. -श्रिता-ब० । ५. यमराज । ६. इन्द्रजाल । ७. उत्तरदिशि । ८. धनुः। ९. चतुर्गति । १०. व पसोपान-अ०, ज०। ११. सिंहासन । १२. देवदुन्दुभि । १३. धूपघट ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy