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________________ ६८ सोमदेव विरचित [कल्प ११, श्लो० १८२लमनश्चरणशङ्खसारङ्गनन्दकसंकीर्णकरम् , असुरवृन्दबन्दीकृतसुन्दरीसंपाद्यमानचामरोपचारव्यतिकरम्, अरुणानुजविनीयमानसेवागतसुरसमाजम्, 'अधोक्षजवषं विशिष्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास । सापि जिनसमयरहस्यावसायसरस्वती रेवती कर्णपररम्परया किंवदन्तीमेतामुपश्रुत्य 'सन्ति खल्यर्धचक्रवर्तिनो नव कौमोदकीप्रभवः । ते तु संप्रति न विद्यन्ते । अयं पुनरपर एवं कश्चिदिन्द्रजालिको लोकविप्रलम्भनायावतीर्णः' इति निर्णीयाविचलितचित्ता समासीत्। पुनः पाशभृद्दिशि शिशिरगिरिशिखराकारकायशाक राश्रितशरीराभोगमन्वग्भृतनगनन्दनानिबिरीशस्तनतुङ्गिमस्तिमितपृष्टभागम् , अनिमिषवनविसर्पिकर्पूरोद्भिदें गर्भसंभवपरागपाण्डुरितपिण्डपरिकरम्, अचिरगोरोचनाभङ्गरागपिङ्गलाम्बकंपरिकल्पितभालसरःस्वर्णसरोजाकरम्, अबालकपालदलकलापालवालवलयविलसन्मौलिमूलव्यतिकरम् अतिविकटजटाजूटकोटरपर्यटद्गगना टनतटनीतरङ्गकरकेलिकुतूहलितवालपालेय करम् , अाभरणे भङ्गिसंदर्भिताने भकभुजङ्गभोगे'संगतानेकमाणिक्यविरोक निकरातिशयसारशार्दूलाजिनविराजमानम. उडमरडमरुकाजे कावकृपाणपरशुत्रिशूलखटवाङ्गादिसहसंकटशकोट कोटावस्ता कई कोटिविस्तारम् , स्तम्बर मासुरचर्मद्रवद्रुधिरदुर्दिनीकृतनावनीप्रतानम् , अनलोद्भव-निकुम्भ कुम्भोदर दूसरा शिरोभूषण है। विष्णुकी गहरी नाभिसे एक ऊँची नाल निकली हुई थी उसपर ब्रह्मा विराजमान थे और वे सहस्रनामका पाठ करते थे। लक्ष्मी उनके चरण-कमलोंकी सेवा कर रही थी। उनके हाथोंमें शंख, चक्र, कमल और खड्ग थे । बन्दिनी बनाई गई दैत्योंकी सुन्दरी स्त्रियाँ चमर ढारती थीं और सेवाके लिए आये हुए देवताओंको अन्दर ले जानेके लिए गरुड़ राजद्वारपर खड़े हुए थे। इस प्रकार विष्णुका रूप धारण करके उस विद्याधरने समस्त नगरमें हलचल मचा दी। जिन-शासनके रहस्यको जानने में सरस्वतीके तुल्य रेवती रानीने भी परम्परासे इस बातको सुना। सुनकर वह विचारने लगी कि विष्णु नौ होते हैं किन्तु वे आजकल नहीं है। लोगोंको ठगनेके लिए यह कोई इन्द्रजालिया आया हुआ है। ऐसा निर्णय करके वह नहीं गई। इसके पश्चात् उसने पश्चिम दिशामें रुद्र का रूप धारण किया। वह हिमालय पर्वतके शिखरके आकार शरीरवाले वृषभपर बैठे हुए थे। उनके वाम भागमें पार्वती बैठी थी। गोरोचता और भाँगके रागसे पीले हुए नयन ऐसे मालूम होते थे मानो मस्तक रूपी सरोवरमें स्वर्ण-कमल खिले हुए हैं। गलेमें नरमुण्डोंकी माला पड़ी हुई थी। जटाओंके अन्दर विहार करती हुई गंगा नदीकी लहरोंमें बाल-चन्द्रमा खेलता था । भूषणकी तरह धारण किये गये बृहत्काय सर्पकी फणके रत्नोंकी किरणोंसे चितकबरा हुआ सिंहचर्म धारण किये हुए थे । डमरू त्रिशूल खट्वांग आदि लिये हुए थे । गजासुरके चर्मसे टपकनेवाले रक्तने नृत्यभूमिमें वर्षाऋतुका १. चक्र । २. धनुः । ३. खग। ४. दैत्यानां स्त्रियः कारागारे धृताः । ताभिः चामराः क्षिप्यन्ते ५. गरुडो द्वारपालो जातः । ६. विष्णो रूपं प्राप्य । ७. परिज्ञान । ८. गदास्वामिनः । ९. पश्चिमायां दिशि । १०. वृषभ । ११. पश्चाद्धृतगौरी। १२. निबिड़ । १३. तरवः । १४. शरीर । १५. लोचन । १६. देवनदी। १७. चन्द्र । १८. रचना। १९. मिश्रित । २०. बृहत् । २१. शरीर। २२. किरण । २३. कर्वर गजचर्म । २४. धनुः । २५. -टकोट-ज० । शकोटा हस्ताः । २६. गजासुर । २७. निकुम्भोदर-ज०।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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