SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपासकाध्ययन ८७ -१८२] न्दकन्दरविनिर्गलन्निखिलवेदमकरन्दसंदोहम्, उभयपाॉवस्थितमूर्तिमन्निखिलकलाविलासिनीसमाजसंचार्यमाणचामरप्रवाहम् , उदारनादनारदमुनिना मन्यमानप्रतीहारव्यवहारम् , अम्भोभवोद्भवाकारमासाद्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास! सापि जिनेश्वरचरणप्रणयमण्डपमण्डनमाधवी वरुणधरणीश्वरमहादेवी नृपतिपुरोहितात्तमुदन्तमाकर्ण्य त्रिषष्टिशलाकोन्मेषेषु पुरुषेषु मध्ये ब्रह्मा नाम न कोऽपि श्रूयते । तथा श्रात्मनि मोक्षे शाने वृत्ते ताते च भरतराजस्य । ब्रह्मेति गीः प्रगीता न चापरो विद्यते ब्रह्मा ॥१८२॥ इति चानुस्मृत्याविस्मयमतिरतिष्ठत् । पुनः कीनाशदिशि पवनाशनेश्वरशरीरशयनाश्रितापंघनमितस्ततः प्रकामप्रसरत्तदङ्गोत्तरङ्गकान्तिप्रकाशपरिकल्पितामृताम्बुधिसंनिधानम्, उल्लेखोल्लसत्फणामणिमरीचिनिचयसिचयाचरितनिरालम्बाम्बरवितानभावम् , अमोद्यानप्रसूनमञ्जरीजालजटिलप्रतानवनमालामकरन्दमण्डितकौस्तुभप्रभाभावम्, असितसितरत्नकुण्डलोहयोतसंपादितोभयं पक्षपंक्षद्वयाक्षेपम्, अनेकमाणिक्याधिकाटितकिरीटकोटिविन्यस्तास्तोकस्तबकपारिजातप्रसवपरिमलपानपरिचयचटुलेचचरीकचयरच्यमानापेरेन्दीवरशेखरकलापमति गम्भीरनाभीनदैनिर्गतोनालने लनिलयनिलीनहिरण्यगर्भसंभाष्यमाणनामसहस्रकलमाखण्डले जलधिसुतासंवाह्यमानक्रमकमथे। उसकी उपासनाके लिए मतङ्ग, भृगु, भर्ग, भरत, गौतम, गर्ग, पिङ्गल, पुलह, पुलोम, पुलस्ति, पाराशर, मरीचि और विरोचन ऋषिरूपी भ्रमरोंकी सेना आई हुई थी, जो उसके मुखकमलरूपी गुफासे झरनेवाले समस्त वेदरूपी पुष्पमधुके समूहका स्वाद ले रही थी। दोनों ओर खड़े होकर समस्त मूर्तिमान् कलाओंकी तरह देवांगनाएँ चामर ढारती थीं और नारद मुनि द्वारपालका काम करते थे। इस प्रकार ब्रह्माका रूप धारण करके उस विद्याधरने समस्त नगरमें हलचल मचा दी। जिनेन्द्र भगवान्के चरणोंमें स्नेहरूपी मण्डपको सुशोभित करनेके लिए माधवीलताके समान उस वरुण राजाकी पटरानी रेवतीने जब राजपुरोहितके मुखसे उक्त वृत्तान्त सुना तो वह विचारने लगी कि तेरसठ शलाकापुरुषोंमें तो किसीका भी नाम ब्रह्मा नहीं है । तथो "आत्माको, मोक्षको, ज्ञानको, चारित्रको और भरतके पिता ऋषभदेवको ब्रह्मा कहते हैं । इनके सिवा और कोई ब्रह्मा नहीं है" ॥१८२॥ ऐसा विचारकर कुछ आश्चर्य करके चकित हो वह बैठी रही। इसके पश्चात् उस विद्याधरने नगरकी दक्षिणदिशामें विष्णुका रूप धारण किया। विष्णु भगवान् शेषनाग शैय्यापर लेटे हुए थे । इधर-उधर फैली हुई उनके शरीरकी कान्तिके प्रकाशसे अमृतका समुद्र-सा बन गया था। उनके शेषनागके फणके मणिकी किरणोंके समूहरूपी वस्त्रसे निरालम्ब आकाशमें चन्दोआ-सा तना था। अनेक प्रकारके मणि-मुक्ताओंसे बने हुए उसके मुकुटकी चोटीपर पारिजात वृक्षके फूलोंके बड़े-बड़े गुच्छे रखे थे। उनकी सुगन्धका पान करनेके लिए उनपर बहुतसे भौंरे एकत्र हो गये थे। वे ऐसे मालूम होते थे मानो नीले कमलोंका बना यह १. मूर्तिमत्यः कला इव देवस्त्रीसमूहः । २. कमलोत्पन्नस्य ब्रह्मणो रूपं प्राप्य । ३. प्रणीता आ० । कथिता । ४. यमस्य दक्षिणदिशि । ५. शेषनागशय्या । ६. शरीर । ७. नागशरीर । ८. वस्त्र । ९. देव । १०. कृष्णशुक्लपक्षो। ११.-धिकाधिकघ-ब०। १२. चपलभ्रमर । १३. नीलोत्पल । १४. ह्रद । १५. कमल । १६. क्षीरसागर । १७ लक्ष्मी।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy