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________________ सोमदेव विरचित [कल्प १०, श्लो० १८१न्त्रसंयमिनि तत्त्वाभिनिवेशवशिकाशयवेश्मनि तद्देशमुद्दिश्याश्रितशौचे खचरेण चिन्तितम् अत एव भगवानतीन्द्रियपदार्थप्रकाशनशेमुषींप्राप्तः श्रीमुनिगुप्त्यो[-तो]ऽस्य किमपि न वाचिकं प्राहिणोत् । यस्मादस्मिन्प्रदीपवर्तिवदनमिवान्तस्तत्त्वसर्गे निसर्गमलीमसं मानसं बहिः प्रकाशनसरसं च। भवति चात्र श्लोकः जले तैलमिवैतिचं वृथा तत्र बहिर्बु ति । रसवत्स्यान्न यत्रान्तर्बोधो वेधीय धातुषु ॥१८॥ इत्युपासकाध्ययने भवसेनदुर्विलसनो नाम दशमः कल्पः । परीक्षितस्तावत्प्रसभांविर्भविष्यद्भवसेनो भवसेनस्तदिदानी भगवदाशीर्वादपादपोत्पादवसुमती रेवती परीक्षे, इत्याक्षिप्तान्तःकरणः पुरस्य॑ पुरंदरदिशि हसांशोत्तंसावासवेदिकान्तरालकमलकर्णिकाम्तीर्णमृगाजिनासीनपर्यङ्कपर्यायम् , अमरसरःसंजातसरोजसूत्रवर्तितोपवीतपूतकायम् ,'अमृतकरकुरङ्गकुलकृष्णसारकृत्तिकृतोत्तरासंगसंनिवेशम् , अनवरतहोमारम्भसंभूतभसितपाण्डुपुण्ड्र कोत्कटनिटले देशम् , अम्बरेचरतरङ्गिणीजलक्षालितकल्पकुजवल्कलवलितोत्तरीयप्रतानपरिवेष्टितजटावलयम् , अमृतान्धसिन्धुरोधःसंजातकुतपाङ्कराक्षमालाकमण्डलुयोगमुद्राङ्कितकरचतुष्टयम् , उपासनसमायात-मतङ्ग-भृगु - भर्ग-भरत गौतम-गर्गपिङ्गल-पुलह-पुलोम-पुलस्ति-पराशर-मरीचि-विरोचन चञ्चरीकानीकास्वाद्यमानवदनारविजाननेकी बुद्धि रखनेवाले श्री मुनिगुप्ताचार्यने इससे कुछ भी नहीं कहलाया । क्योंकि दीपककी बत्तीके मुखकी तरह इसका मन तो स्वभावसे ही कलुषित है किन्तु बाहरमें प्रकाश दिखाई देता है। इस विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है जहाँ धातुमें पारदकी तरह अन्तर्बोध चित्तके अन्दर नहीं भिदता, वहाँ जलमें तेलकी तरह बाहरमें ही प्रकाशमान शास्त्रज्ञान व्यर्थ ही होता है ॥१८१॥ इस प्रकार उपासकाध्ययनमें भव्यसेन मुनिकी दुश्चेष्टा बतलानेवाला दसवाँ कल्प समाप्त हुआ। भवसेनको परीक्षा हो चुकी । अब भगवान् मुनि गुप्ताचार्यके द्वारा आशीर्वाद पानेवाली रेवती रानीकी परीक्षा करनी चाहिए। ऐसा सोचकर उस विद्याधरने नगरकी पूर्वदिशामें ब्रह्माका रूप बनाया। वेदिकाके मध्यमें कमलकी कर्णिकापर बिछे हुए मृगचर्मपर वह पर्यङ्कासनसे बैठा हुआ था । मान-सरोवरमें उत्पन्न हुए कमलके धागोंसे बना हुआ यज्ञोपवीत उसके शरीरपर पड़ा हुआ था। चन्द्रमाके हिरणके वंशके कृष्णसार मृगके चर्मका बना हुआ उसका दुपट्टा था। निरन्तर होनेवाले होमकी भस्मका त्रिपुण्ड उसके मस्तकपर सुशोभित था। ____ गंगाके जलसे धोये गये कल्पवृक्षके वल्कलसे उसकी जटाएँ बँधी हुई थीं । गंगाके किनारोंपर उगे हुए दूर्वाङ्कुर, रुद्राक्ष माला, कमण्डलु और योगमुद्रासे उसके चारों हाथ युक्त १. शून्य । २. सन्देशं । ३. शास्त्र । ४. बाह्याचार । ५. पारदवत् । ६. भेदाय । ७. हठात् प्रकटीभविष्यन्ती संसारसेना यस्य । ८. नगरस्य पूर्वदिशि । ९. अंसशब्देन अत्र पृष्ठं। तस्य पृष्ठस्य उत्तंसः मुकुटप्रायः योऽसो आवासः । १०. मानसरोवर । ११. चन्द्रस्य लाञ्छने यो मृगो वर्तते तस्य वंशोत्पन्नस्य मगस्य चर्मणा। १२. तिलक । १३. ललाट । १४. १५. देवगङ्गा । १६. दर्भ । १७. एते ऋपय एव भृङ्गाः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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