SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 186
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सोमदेव विरचित [कल्प १०, श्लो० १५६अभिनवजनमनोह्लादनवचनागदप्रयोगचरकभट्टारक, सकलकलाविलासावासविद्वजनपवित्रात्पाटलिपुत्रात्' । 'किमर्थम्'। 'अध्ययनार्थम्' । 'क्वाधिजिंगांसाधिकरणमन्तःकरणम्' । 'वाङ्मलक्षालनकरप्रकरणे व्याकरणे'। 'यद्येवं मदन्तिके स्वाध्यायध्यानसर्वस्व समास्व । परवादिमदविदारणवाक्प्रक्रमा से भगवन् , साधु समासे । ___ तदन्वतीतवतीषु कियतीषुचित्कालकलासु 'बटो, ललाटंतपो वर्तते मार्तण्डः । तद्गृहाणेमं कमण्डलुम् । पर्यटयागच्छावः' । बटुः-'यथाज्ञापयति भगवान्' । पुनर्नगरबाहिरिकायां निर्गते सरूपसंयते स कपटबटुर्मायामयशष्पाङ्क रनिकरनिकीर्णी बिहारावतीर्णामवनिमकार्षीत् । तदर्शनादाकृतियतिरपि मनाग्यलम्बिष्ट । बटुः-'भगवन् , किमित्यकाण्डे विलम्ब्यते'। 'बटो, प्रवचने किलैते शष्पाङ्क राः स्थावराः प्राणिनः पठ्यन्ते'। 'भगवन्, श्वासादिषु मध्ये कियतिथगुणः खल्वमीषां प्राणः। केवलं रत्नाङ्क रा इव धराविकारा ोते"शष्पाकुराः।' 'समस्त ब्राह्मण वंशसे अधिक उपार्जित पुण्यसे मनोरम प्रकृति होनेके कारण समस्त लोगोंकी आँखोंको आनन्द देनेवाले बालक, कहाँ से आते हो ?' 'नये मनुष्योंके मनको प्रसन्न करनेवाले वचनोंके प्रयोगमें कुशल भगवन् , मैं समस्त कलाओंमें प्रवीण, विद्वानोंसे पवित्र पाटलीपुत्र नगरसे आता हूँ। 'क्यों आये हो ?' 'पढ़नेके लिए !' 'क्या पढ़ना चाहते हो ?' 'वचनदोषको दूर करनेमें समर्थ व्याकरण पढ़ना चाहता हूँ।' . 'तो स्वाध्याय और ध्यानमें लीन, तुम मेरे पास ही रहो।, हे परवादियोंके मदको बिदारण करनेवाले वचनोंमें प्रवीण भगवान् ! जैसी आज्ञा ।' आपके पास ही ठहरता हूँ। उसके पश्चात् कुछ काल बीतनेपर मुनि बोले'बालक ! सूर्य मध्याह्नमें आगया है । अतः कमण्डलु लो, चलो घम आयें ।' बालक-'भगवन् ! जो आज्ञा ।' नगरसे बाहर जानेपर उस कपटवेषी बालकने उस विहारभूमिको मायामयी घासके अंकुरोसे ढक दिया । उसे देख कर वह मुनिवेषी भी थोड़ा सकपका गया । बालक-'भगवन् ! व्यर्थमें क्यों देर करते हैं ? 'बालक ! शास्त्रमें घासके इन अंकुरोंको स्थावर जीव बतलाया है।' १. वचनमेव औषधं तस्य (प्रयोगे ) चरकः-वैद्यः । २. अध्ययनकर्तुमिच्छा । ३. तिष्ठ । ४. वाक्प्रक्रम एव असि खड्गो यस्य । ५. तिष्ठामि । ६. पर्यटनं कृत्वा । ७. वेषधारिणि । ८. बालतृण । सस्या-मु० । ९. कियति गु-मु० । १०. सस्या-मु० ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy