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________________ नास्ति । -१५६ ] उपासकाध्ययन मुनिसत्तमः-'प्रियतम, यथा ते मनोरथस्तथाभिमतपथः समस्तु । संदेष्टव्यं पुनस्तत्रतावदेव यदुत तत्पुरीपुरंदरस्य वरुणधरणीश्वरस्य शचीसदृशः सुदृशः पतिजिनपतिचित्तचरणोपचारपदव्या महादेव्या रेवतीतिगृहीतनामया मदीयाशीर्वाच्या, तथावश्यकविशेषवश्यचित्तः सुव्रतभगवतो बन्दना च ।। देशे यतिवरः-किमपरः तत्र भगवन्, जैनो जनो नास्ति । भगवान्-'देशवतिन् , अलं विकल्पेन । तत्र गतस्य भविष्यति समस्ताप्याहतेतरशरीरिसपंक्षा समक्षा स्थिति। खचरविद्याबीजप्ररोहमल्लकः तुल्लको 'यथादिशति दिव्यज्ञानसंगवान्भगवान्' इति निगीर्य गगनचर्ययावतीर्य चोत्तरमथुसयां परीक्षेय तावदेकादशाङ्गनिधानं भव्यसेनम् । तदनु परीक्षिष्ये सम्यक्त्वरत्नवती रेवतीमिति कृतकौतुक : कलमकणिशकिंशारुप्रकाशकेशपेशलासरालचूलमुत्तप्तकाञ्चनरुचिरुचिरशरीरगौरतानुकूलमरविन्दमकरन्दपरागपिङ्गलनयनमतिस्पष्टविकटवर्णवर्णनोदीर्णवदनमेकादशवर्षदेशीयमतिविस्मयनीयं कपटबटुवेषमाश्लिष्य तन्मुनिमतमुर्दवसितमयासीत् । वेषमुनिस्तमीक्षणकमनीयं द्विजात्मजसजातीयं विलोक्य किलैवं स्नेहाधिक्यमालीलपत्–'हंहो, निखिलद्विजवंशव्यतिरिक्तसुकृतकृतकल्याणप्रकृतितया समस्तलोकलोचनानन्दो त्पादनपटो बटो कुतः खलु समागतोऽसि । वन्दना करना चाहता हूँ अतः उस नगरीको जानेकी आज्ञा प्रदान करें। तथा उस नगरीमें यदि किसीसे कुछ कहना हो तो वह भी बतला दें कि किससे क्या कहूँ। आचार्य बोले-'प्रियवर ! अपने मनोरथके अनुसार मथुरा नगरीको जाओ। और वहाँ के लिए मेरा इतना ही सन्देश है कि उस नगरीके स्वामी वरुण राजाकी रानी जिन भगवान्के चरणोंकी अनन्य उपासिका पतिव्रता महादेवी रेवतीको मेरा आशीर्वाद कहना और अपने आवश्यकोंमें लीन भगवान् सुव्रतमुनिसे वन्दना कहना।' 'भगवन् ! क्या वहाँ अन्य जैन यति नहीं हैं ?'–देशवतीने पूछा । आचार्य—'देशव्रती ! यह पूछनेकी आवश्यकता नहीं है । वहाँ जानेपर तुम्हें जैन और जैनेतर मनुष्योंकी स्थिति प्रत्यक्ष हो जायेगी।' __ आकाशगामिनी विद्यामें पटु वह क्षुल्लक 'दिव्यज्ञानी भगवान्की जो आज्ञा' इतना कहकर आकाश मार्गसे उत्तर मथुरामें जा पहुँचा। वहाँ उसे कौतूहल हुआ कि पहले म्यारह अङ्गके धारी भव्यसेनकी परीक्षा करनी चाहिए, फिर सम्यक्त्व रूपी रत्नसे भूषित रेवतीकी परीक्षा करूँगा। यह सोच उसने ग्यारह वर्षके बालकका अत्यन्त आश्चर्यकारक रूप बनाया । उसके धान्यकी मञ्जरीके अग्रभागकी तरह पीले केश थे, तपाये हुए सोनेके समान शरीरका रूप था, शरीरके अनुरूप ही कमलके रस और रजके समान पीले नेत्र थे और मुखसे अति स्पष्ट सुन्दर स्तुति पाठ करता था। ऐसा रूप बनाकर वह विद्याधारी क्षुल्लक भव्यसेन मुनिके वासस्थानपर गया। उस सुन्दर ब्राह्मण बालकको देखकर वह मुनिवेषी बड़े स्नेहसे इस प्रकार बोला १. पतिश्च राजा जिनपतिर्वीतरागस्वामी तयोश्चित्तचरणो पत्युश्चित्तं जिनपतेश्चरणौ। २. स्थानं मार्गो वा । ३. सदशा । ४. प्रत्यक्षा। ५. भाजन । ६. अक्षरोच्चार । ७. गृहीत्वा । ८. स्थानं। ९. अधिक ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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