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________________ सोमदेव विरचित [श्लो० १०३तयाक्षयकपक्षत्वे बन्धमोक्षक्षयागमः । तात्त्विकैकत्वसद्भावे स्वभावान्तरहानितः ॥१०॥ शाता दृष्टा महान सूक्ष्मः कृतिभुक्त्योः स्वयं प्रभुः। भोगायतनमात्रोऽयं स्वभावादूर्ध्वगः पुमान् ॥१०४॥ ज्ञानदर्शनशून्यस्य न भेदः स्यादचेतनात् । ज्ञानमात्रस्य जीवत्वे नैकधीश्चित्रमित्रवत् ॥१०५॥ है कि घड़ा पहले फूट जाता है पीछेसे उसके ठीकरे बन जाते हैं। घड़ेका फूटना ही ठीकरेका उत्पन्न होना है और ठीकरेका उत्पन्न होना ही घड़ेका फूटना है। अतः उत्पाद और विनाश दोनों एक साथ होते हैं—एक ही क्षणमें एक पर्याय नष्ट होती है और दूसरी पर्याय उत्पन्न होती है, और इनके उत्पन्न और नष्ट होनेपर भी द्रव्य-मूलवस्तु कायम रहता है-न वह उत्पन्न होता है। और न नष्ट । जैसे घड़ेक फूट जाने और ठीकरेके उत्पन्न हो जानेपर भी मिट्टी दोनों हालतोंमें बराबर कायम रहती है । अतः वस्तु प्रति समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त कहलाती है । . वस्तुको देखनेकी दो दृष्टियाँ हैं-एक दृष्टिका नाम है द्रव्यार्थिक और दूसरीका नाम है पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नयकी दृष्टिसे वस्तु ध्रुव है, और पर्यायार्थिक नय दृष्टिसे उत्पादव्ययशील है। . यदि वस्तुको केवल प्रतिक्षण विनाशशील या केवल नित्य माना जायेगा तो बन्ध और मोक्षकी व्यवस्था नहीं बन सकेगी। क्योंकि सर्वथा एक रूप माननेपर उसमें स्वभावान्तर नहीं हो सकेगा ॥१०३॥ भावार्थ-वस्तुको उत्पाद विनाशशील न मानकर यदि सर्वथा क्षणिक ही माना जायेगा तो प्रत्येक वस्तु दूसरे क्षणमें नष्ट हो जायेगी। ऐसी अवस्थामें जो आत्मा बँधा है वह तो नष्ट हो जायेगा तब मुक्ति किसकी होगी ? इसी तरह यदि वस्तुको सर्वथा नित्य माना जायेगा तो वस्तुमें कभी भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकेगा। और परिवर्तन न होनेसे जो जिस रूपमें है वह उसी रूपमें बनी रहेगी। अतः बद्ध आत्मा सदा बद्ध ही बना रहेगा, अथवा कोई आत्मा बंधेगा ही नहीं; क्योंकि जब वस्तु सर्वथा नित्य है तो आत्मा सदा एक रूप ही रहेगा, न वह कर्ता हो सकेगा और न भोक्ता । यदि उसे कर्ता भोक्ता माना जायेगा तो वह सर्वथा नित्य नहीं रहेगा। अतः प्रत्येक वस्तुको द्रव्यकी अपेक्षा नित्य और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य मानना चाहिए। आत्माका स्वरूप - आत्मा ज्ञाता और द्रष्टा है,महान् और सूक्ष्म है, स्वयं ही कर्ता और स्वयं ही भोक्ता है। अपने शरीरके बराबर है । तथा स्वभावसे हो ऊपरको गमन करनेवाला है ॥ यदि आत्माको ज्ञान और दर्शनसे रहित माना जायेगा तो अचेतनसे उसमें कोई भेद नहीं रहेगा। अर्थात् जड़ और चेतन दोनों एक हो जायेंगे। और यदि ज्ञानमात्रको जीव माना जायेगा तो चित्र मित्रकी तरह एक बुद्धि नहीं बनेगी ॥१०४-१०५॥ १. यदि क्षय एव अनित्यं क्षणिकं सर्व मन्यते अथवा अक्षयम् अविनश्वरं मन्यते तर्हि स्यात् भवेत कोऽसौ बन्धमोक्षयोः क्षयागमः-न बन्धो घटते, न मोक्षं घटते, कुतः स्वभावान्तरहानितः क्व सति तात्त्विककत्वसद्भावे नित्यत्वे इत्यर्थः । २. शरीरप्रमाणः । "जीवोत्ति हवदि चेदा उपओगविसेसिदो पह कत्ता । भोत्ता य देहमेत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजतो ॥२७||-पञ्चास्तिकाय ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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