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________________ २७ -१०२ ] उपासकाध्ययन उत्पत्तिस्थितिसंहारसाराः सर्वे स्वभावतः । नयद्वयाश्रयादेते तरङ्गा इव तोयधेः ॥१०२॥ कहना है कि आगममें जीव, अजीव, उनके रहनेके स्थान, लोक तथा अपने-अपने कारणोंके साथ बन्ध और मोक्षका कथन होता है ॥१०१॥ भावार्थ-जिसमें चारों पुरुषार्थोंका वर्णन करते हुए यह बतलाया गया हो कि क्या छोड़ने योग्य है और कौन ग्रहण करने योग्य है वही सच्चा आगम है। उस आगममें जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका वर्णन रहता है। प्रत्येक वस्तु उत्पाद-व्यय ध्रौव्यात्मक है जैसे समुद्रमें लहरें होती हैं वैसे ही सभी पदार्थ द्रब्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे स्वभावसे ही उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त होते हैं ॥१०२॥ भावार्थ-जैनधर्ममें प्रत्येक वस्तुको प्रति समय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त माना है अर्थात् प्रत्येक वस्तु प्रति समय उत्पन्न होती है, नष्ट होती है और स्थिर भी रहती है। इसपर यह प्रश्न होता है कि ये तीनों बातें तो परस्परमें विरुद्ध हैं, अतः एक वस्तुमें एक साथ वे तीनों बातें कैसे हो सकती हैं, क्योंकि जिस समय वस्तु उत्पन्न होती है उस समय वह नष्ट कैसे हो सकती है और जिस समय नष्ट होती है उसी समय वह उत्पन्न कैसे हो सकती है। तथा जिस समय नष्ट और उत्पन्न होती है उस समय वह स्थिर कैसे रह सकती है ? इसका समाधान यह है कि प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिवर्तनशील है। संसारमें कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। उदाहरणके लिए बच्चा जब जन्म लेता है तो छोटा सा होता है, कुछ दिनोंके बाद वह बड़ा हो जाता है। उसमें जो बढ़ोतरी दिखाई देती है वह किसी खास समयमें नहीं हुई है, किन्तु बच्चेके जन्म लेनेके क्षणसे ही उसमें बढ़ोतरी प्रारम्भ हो जाती है और जब वह कुछ बड़ा हो जाता है तो वह बढ़ोतरी स्पष्ट रूपसे दिखाई देने लगती है। इसी तरह एक मकान सौ वर्षके बाद जीर्ण होकर गिर पड़ता है। उसमें यह जीर्णता किसी खास समयमें नहीं आई, किन्तु जिस क्षणसे वह बनना प्रारम्भ हुआ था उसी क्षणसे उसमें परिवर्तन होना प्रारम्भ हो गया था उसीका यह फल है जो कुछ समयके बाद दिखाई देता है। अन्य भी अनेक दृष्टान्त हैं जिनसे वस्तु प्रति समय परिवर्तनशील प्रमाणित होती है। इस तरह वस्तुके परिवर्तनशील होनेसे उसमें एक साथ तीन बातें होती हैं, पहली हालत नष्ट होती है और जिस क्षणमें पहली हालत नष्ट होती है उसी क्षणमें दूसरी हालत उत्पन्न होती है। ऐसा नहीं है कि पहली हालत नष्ट हो जाये उसके बाद दूसरी हालत उत्पन्न हो । पहली हालतका नष्ट होना ही तो दूसरी हालतकी उत्पत्ति है । जैसे, कुम्हार मिट्टीको चाकपर रखकर जब उसे घुमाता है तो उस मिट्टीकी पहली हालत बदलती जाती है और नई-नई अवस्थाएँ उसमें उत्पन्न होती जाती हैं। पहली हालतका बदलना और दूसरीका बनना दोनों एक साथ होते हैं । यदि ऐसा माना जायेगा कि पहली हालत नष्ट हो चुकनेके बाद दूसरी हालत उत्पन्न होती है तो पहली हालतके नष्ट हो चुकने और दूसरी हालतके उत्पन्न होनेके बीचमें वस्तुमें कौन-सी हालतदशा मानी जायेगी। घड़ा जिस क्षणमें फूटता है उसी क्षणमें ठीकरे पैदा हो जाते हैं। ऐसा नहीं १. समस्ताः पदार्थाः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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