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________________ -१११] उपासकाध्ययन प्रेर्यते 'कर्म जीवेन जीवः प्रेर्येत कर्मणा । एतयोः प्रेरको नान्यो नौनाविक समानयोः ॥ १०६॥ मन्त्रवन्नियतोऽप्येषोऽचिन्त्यशक्तिः स्वभावतः । श्रतः शरीरतोऽन्यत्र न भावोऽस्य प्रमान्वितः ॥ १०७॥ सस्थावरभेदेन चतुर्गतिसमाश्रयाः । जीवाः केचित्तथान्ये च पञ्चमीं गतिमाश्रिताः ॥ १०३ ॥ धर्माधर्मो नभः कालो पुद्गलश्चेति पञ्चमः । अजीवशब्दवाच्याः स्युरेते विविधपर्ययाः ॥१०६ ॥ गंतिस्थित्य प्रतीघातपरिणामनिबन्धनम् । चत्वारः सर्ववस्तूनां रूपाद्यात्मा च पुद्गलः ॥ ११०॥ श्रन्योन्यानुप्रवेशेन बन्धः कर्मात्मनो मतः । अनादिः सावसानश्च कालिकास्वर्णयोरिव ॥ १११ ॥ २६ जीव कर्मको प्रेरित करता है और कर्म जीवको प्रेरित करता है । नौका और नाविकके समान है । कोई तीसरा इन दोनोंका प्रेरक नहीं है ॥ १०६ ॥ जैसे मंत्रमें कुछ नियत अक्षर होते हैं, फिर भी उसकी शक्ति अचिन्त्य होती है उसी तरह यद्यपि आत्मा शरीर परिमाणवाला है, फिर भी वह स्वभावसे ही अचिन्त्य शक्तिवाला है, अतः शरीर से अन्यत्र उसका अस्तित्व प्रमाणित नहीं है ॥ १०७॥ जीवके भेद स और स्थावर के भेदसे जीव और देवगतिमें पाये जाते हैं । ये सब होते हैं ॥ १०८ ॥ 1 इन दोनोंका सम्वन्ध दो प्रकारके हैं; जो नरकगति, तिर्यञ्चगति मनुष्यगति, संसारी जीवोंके भेद हैं । और पञ्चम गतिको प्राप्त मुक्त जीव अजीव द्रव्य धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये पाँच अजीव द्रव्य कहलाते हैं । इनकी अनेक पर्यायें होती हैं ॥१०९॥ धर्मद्रव्य जीव और पुद्गलों की गतिमें निमित्त कारण है । अधर्मं द्रव्य उनकी स्थिति में निमित्त कारण है । आकाश सब वस्तुओंको स्थान देनेमें निमित्त है और काल सबके परिणमन में निमित्त है । तथा जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श ये चारों गुण पाये जाते हैं, उसे पुद्गल कहते हैं ॥११०॥ बन्धका स्वरूप और भेद आत्मा और कर्मका अन्योन्यानुप्रवेशरूप बन्ध होता है अर्थात् आत्मा और कर्म प्रदेश परस्पर में मिल जाते हैं । स्वर्ण और कालिमाके बन्धकी तरह यह बन्ध अनादि और सान्त होता है अर्थात् जैसे सोनेमें खानसे ही मैल मिला होता है और बादमें मैलको दूर करके सोने I ' १. कर्मस्थिति जन्तुरनेकभूमि नयत्यमुं सा च परस्परस्य । त्वं नेतुभावं हि तयोर्भवाच्यो जिनेन्द्र नौना विकयोरिवाख्यः ॥ विषापहार । २. मंत्रोऽप्यक्षरैः कृत्वा समर्यादः एपोऽप्यात्मा कायमात्रः ३. न सद्भावः । ४. कायमात्रः । ५. सर्ववस्तूनां गतिनिबन्धनं धर्मः, स्थितिनिबन्धनमधर्मः, अप्रतिघात निबन्धनं नभः, परिणाम निबन्धनं काल: । ६. तदुक्तं - परस्परं प्रदेशानां प्रवेशो जीवकर्मणोः । एकत्वकारको बन्धो रुक्मकाञ्चनयोरिव ॥ - सं० पञ्चसंग्रह, पृ० ५४ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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