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________________ २४ सोमदेव विरचित नयैव दिशा चिन्त्यं सांख्यशाक्यादिशासनम् । तत्त्वागमाप्तरूपाणां नानात्वस्याविशेषतः ||८|| जैनमेकं मतं मुक्त्वा द्वैताद्वैत समाश्रयौ । मार्गों समाश्रिताः सर्वे सर्वाभ्युपगमागमाः ॥ ८६॥ वामदक्षिणमार्गस्थो मन्त्रीतरसमाश्रयः । कर्मज्ञानगतो ज्ञेयः शंभुशाक्यद्विजागमः ॥८७॥ यच्चैतत्— 'afi दहि प्राहुर्धर्मशास्त्रं स्मृतिर्मता । ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ॥ ते तु यस्त्ववमन्येत हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः । स साधुभिर्बहिः कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ॥८६॥ [ श्लो० ८५ - मनुस्मृति २, १० - ११ । क्यों माने गये हैं ? अर्थात् जैसे ये बहुत हैं फिर भी इनकी संख्या नियत है उसी तरह जैन तीर्थङ्करोंकी भी चौवीस संख्या नियत है ॥ ८४ ॥ इसी प्रकारसे सांख्य और बौद्ध वगैरहके मतोंका भी विचार कर लेना चाहिये । क्योंकि उनमें भी तत्त्व, आगम और आप्तके स्वरूपोंमें भेद पाया जाता है ॥ ८५ ॥ एक जैनमतको छोड़कर शेष सभी मतवालोंने या तो द्वैतमतको अपनाया है या अद्वैत मतको अपनाया है । और उनके आगमों में ऐसी बातें हैं जो सभी लोगोंके द्वारा मान्य हैं ॥ ८६ ॥ शैवमत, बौद्धमत और ब्राह्मणमत वाममार्गी और दक्षिणमार्गी हैं, मंत्र तंत्र प्रधान भी हैं, तथा उसको न मानने वाले भी हैं और कर्मकाण्डी तथा ज्ञानकाण्डी हैं ॥८७॥ 1 भावार्थ - शैवमत ब्राह्मणमत और बौद्धमतमें उत्तर कालमें वाममार्ग भी उत्पन्न हो गया था, और वह वाममार्ग मंत्र तंत्र प्रधान था तथा उसमें क्रियाकाण्डका ही प्राधान्य था । दक्षिण मार्ग न तो मंत्र तंत्र प्रधान था और न क्रियाकाण्डको ही विशेष महत्त्व देता था । शैवमतका तो वाममार्ग प्रसिद्ध है । बौद्धमतके महायान सम्प्रदायमेंसे तांत्रिक वाममार्गका उदय हुआ था । वैसे बुद्ध पश्चात् बौद्धमत हीनयान और महायान सम्प्रदायोंमें विभाजित हो गया था । इसीप्रकार वैदिक ब्राह्मणमत भी पूर्व मीमांसा और उत्तर मीमांसा के भेदसे दो रूप हो गया था । पूर्व मीमांसा यज्ञ यागादि कर्मकाण्ड प्रधान है, और उत्तर मीमांसा, जिसे वेदान्त भी कहते हैं, ज्ञान प्रधान है । [ अब ग्रन्थकार मनुस्मृतिके दो पद्योंको देकर उसकी आलोचना करते हैं -] तथा (मनुस्मृति अ० २ श्लोक १०-११ में ) जो यह कहा है – “ श्रुतिको वेद कहते हैं और धर्मशास्त्रको स्मृति कहते हैं । उन श्रुति और स्मृतिका विचार प्रतिकूल तर्कोंसे नहीं करना चाहिये क्योंकि उन्हींसे धर्म प्रकट हुआ है। जो द्विज युक्ति शास्त्रका आश्रय लेकर श्रुति और स्मृतिका निरादर करता है, साधु पुरुषोंको उसका बहिष्कार करना चाहिये; क्योंकि वेदका निन्दक होनेसे वह नास्तिक है ||८८-८९ ॥ १. मन्त्रेण सर्वान् वशीकरोति शैवः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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