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________________ -६५ ] उपासकाध्ययन तदपि न साधु । यतः। समस्तयुक्तिनिर्मुक्तः केवलागेमलोचनः । तत्त्वमिच्छन्न कस्येह भवेद्वादी जयावहः ॥१०॥ सन्तो गुणेषु तुष्यन्ति नाविचारेषु वस्तुषु । पादेन तिप्यते ग्रावो रत्नं मौलौ निधीयते ॥६॥ श्रेष्ठो गुणैर्गृहस्थः स्यात्ततः श्रेष्ठतरो यतिः । यतेः श्रेष्ठतरो देवो न देवादधिकं परम् ॥१२॥ गेहिना समवृत्तस्य यतेरप्यधरस्थितेः। यदि देवस्य देवत्वं न देवो दुर्लभो भवेत् ॥१३॥ इत्युपासकाध्ययने आप्तस्वरूपमीमांसनो नाम द्वितीयः कल्पः। देवमादौ परीक्षेत पश्चात्तद्वचनक्रमम् । ततश्च तदनुष्ठानं कुर्यात्तत्र मतिं ततः ॥१४॥ येऽविचार्य पुनर्देवं रुचिं तद्वाचि कुर्वते । तेऽन्धास्तत्स्कन्धविन्यस्तहस्ता वाञ्छन्ति सद्गतिम् ॥६॥ यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जो मतावलम्बी समस्त युक्तियोंको छोड़कर केवल आगमके बलपर तत्त्वकी सिद्धि करना चाहता है वह किसीको नहीं जीत सकता ॥१०॥ भावार्थ-मनुस्मृतिकारने श्रुति और स्मृतिमें युक्ति लगानेका निषेध किया है किन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि युक्तिके विना केवल आगमसे तत्त्वकी सिद्धि नहीं हो सकती। यदि केवल आगमसे ही तत्त्वकी सिद्धि मानी जायेगी तब तो ऐसा व्यक्ति सबको जीत लेगा। अथवा सभी धर्मवाले अपने-अपने आगमोंसे अपने-अपने तत्त्व सिद्ध कर लेंगे। अतः युक्तिसे नहीं घबराना चाहिए, जो बात विचार पूर्ण होती है उसे सब ही माननेको तैयार रहते हैं। सज्जन पुरुष गुणोंसे प्रसन्न होते हैं, अविचारित वस्तुओंसे नहीं। देखो, पत्थरको पैरसे ठुकराया जाता है और रत्नको मुकुटमें स्थापित किया जाता है। अतः जो गुणोंसे श्रेष्ठ है वह गृहस्थ है, गृहस्थसे भी श्रेष्ठ यति है और यतिसे श्रेष्ठ देव है। किन्तु देवसे श्रेष्ठ कोई नहीं है। जिसका आचरण गृहस्थके समान है और जो यतिसे भी नीचे स्थित है, ऐसे देवको भी यदि देव माना जाता है तो फिर देवत्व दुर्लभ नहीं रहता ।।९१-९३॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में प्राप्त स्वरूपकी मीमांसा नामका दूसरा कल्प समाप्त हुआ। ..[अब ग्रन्थकार भागम और तत्त्वकी मीमांसा करते हैं-] . सबसे प्रथम देवकी परीक्षा करनी चाहिए, पीछे उसके वचनोंकी परीक्षा करनी चाहिए । उसके बाद उसमें मनको लगाना चाहिए। जो लोग देवकी परीक्षा किये बिना उसके वचनोंका आदर करते हैं वे अन्धे हैं और उस देवके कन्धेपर हाथ रखकर सद्गति प्राप्त करना चाहते हैं। जैसे माता-पिताके शुद्ध होनेपर सन्तानमें शुद्धि देखी जाती है वैसे ही आप्तके विशुद्ध होनेपर ही १. एक आगम एव लोचनं यस्य स पुमान् तत्त्वं वाञ्छति सर्वेषां जयकारी स्यात् । २. पाषाण । ३. गहिसदृशस्य देवस्य यतेरपि हीनस्य देवत्वं घटते चेत् । ४. तस्य अन्वस्य ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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