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________________ -८४ ] उपासकाध्ययन २३ न चैतदसार्वत्रिकम् । कथमन्यथा स्वत एव संजातषट् पदार्थावसायप्रसरे कर्णचरे वाराणस्यां महेश्वरस्योलूकसायुज्य सरस्येदं वचः संगच्छेत्- 'ब्रह्मेतुला नामेदं दिवौकसां दिव्यमद्भुतं ज्ञानं प्रादुर्भूतमिह त्वयि तद्वत्संविधत्स्व विप्रेभ्यः । उपाये सत्युपेयस्य प्राप्तेः का प्रतिबन्धिता पातालस्थं जलं यन्त्रात्करस्थं क्रियते यतः ॥ ८१ ॥ मी हेम जलं मुक्ता मो वह्निः क्षितिर्मणिः । तत्तद्धेतुतया भावा भवन्त्यद्भुतसंपदः ॥८२॥ सर्गावस्थितिसंहारग्रीष्मवर्षातुषारवत् । श्रनाद्यनन्तभावोऽयमाप्तश्रुतसंमाश्रयः ॥८३॥ नियतं न बहुत्वं चेत्कथमेते तथाविधाः । तिथिताराग्रहाम्भोधिभूभृत्प्रभृतयो मताः || ४|| जाते हैं । तब उन्हें इष्ट तत्त्वको जाननेके लिए दूसरेसे सहायता लेनेकीं जरूरत ही क्या है ? वे स्वयं ही जानकर संसारके प्राणियोंको तत्त्वोंका उपदेश देते है । उनके उपदेश से अन्य मनुष्यों को इप्ट तत्त्वका ज्ञान हो जाता है । [ आगे कहते हैं - ] और यह बात कि तीर्थङ्कर स्वयं ही इष्ट तत्त्वको जान लेते हैं, ऐसी नहीं है जिसे सब न मानते हों। यदि ऐसा नहीं है तो स्वतः ही छ पदार्थोंका ज्ञान होनेपर कणाद ऋषिके प्रति वाराणसी नगरी में उलूकका अवतार लेनेवाले महेश्वरका यह कथन कैसे संगत हो सकता है - 'हे कणाद ! तुझे देवोंके ब्रह्मतुला नामके दिव्य ज्ञानकी प्राप्ति हुई है इसे विप्रोंको प्रदान कर ।' भावार्थ- वैदिक पुराणोंके अनुसार महेश्वरने उल्लूका अवतार धारण करके कणाद ऋषिसे उक्त बात कही थी । ऊपर शैवमतवादियोंने जैनोंपर यह आपत्ति की थी कि दूसरेकी सहायता के विना तुम्हारे तीर्थङ्करों को ज्ञान कैसे होता है, उसीका निराकरण करते हुए ग्रन्थकारने बतलाया है कि तुम्हारे मतमें भी कणाद ऋषिको स्वयं छः पदार्थोंका ज्ञान होनेका उल्लेख है । अतः यह आपत्ति कि विना अन्यकी सहायता के ज्ञान नहीं हो सकता, निराधार है । साधन सामग्रीके मिलनेपर पाने योग्य वस्तुकी प्राप्ति में रुकावट ही क्या हो सकती है ? क्योंकि यंत्रके द्वारा पातालमें भी स्थित जल प्राप्त कर लिया जाता है || १ || पत्थरसे सोना पैदा होता है । जलसे मोती बनता है । वृक्षसे आग पैदा होती है और पृथ्वीसे मणि पैदा होती है । इस तरह अपने-अपने कारणोंसे अद्भुत सम्पदा उत्पन्न होती है । जैसे उत्पत्ति, स्थिति और विनाशकी परम्परा अनादि - अनन्त है, या ग्रीष्म ऋतु, वर्षा ऋतु और शीत ऋतुकी परम्परा अनादि अनन्त है, वैसे ही आप्त और श्रुतकी परम्परा भी प्रवाह रूपसे चली आती है, न उसका आदि है और न अन्त। आप्तसे श्रुत उत्पन्न होता है और श्रुतसे आप्त बनता है ॥ ८२-८३॥ [ शैव मतवादीने यह आपत्ति की थी कि प्राप्त बहुतसे नहीं हो सकते और यदि हों भी तो चौवीसका नियम कैसे हो सकता है ? इसका उत्तर देते हुए कहते हैं-] यदि वस्तुओंका बहुत्व नियत न हो तो तिथि, तारा, ग्रह, समुद्र, पहाड़ वगैरह नियत १. ज्ञान । २. कणादऋषी अक्षपादे । ३. स्तुतिवचनं कथं संगच्छेत् । ४. जगत्तोलने परिज्ञाने तुलाप्रायं तव कणवरस्य ज्ञानम् । ५. देवानामपि दिव्यम् । ६. पाषाणो हेम भवति, जलं मुक्ता स्यादित्यादि । ७. पदार्थाः । ८. उत्पादव्ययध्रौव्य । ९. आप्तात् श्रुतं श्रुतादाप्तः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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