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________________ सम्पादकीय एक बार स्व. श्री नाथूराम जी प्रेमी ने लिखा था कि सोमदेव सूरि ने अपने 'यशस्तिलक' महाकाव्य के अन्तिम तीन आश्वासों में श्रावकाचार का महत्त्वपूर्ण प्रतिपादन किया है, उसका हिन्दी अनुवाद होना आवश्यक । उसी से मुझे सोमदेव कृत इस उपासकाध्ययन का हिन्दी अनुवाद करने की प्रेरणा मिली । यशस्तिलक श्रुतसागर सूरि की (अपूर्ण) संस्कृत टीका के साथ दो भागों में निर्णयसागर प्रेस, बम्बई से प्रकाशित हो चुका था । उस मुद्रित प्रति के आधार पर जब मैं अनुवाद कार्य में प्रवृत्त हुआ तो मुझे लगा कि इसमें अशुद्धियाँ हैं । अतः मैंने खोजबीन करके टीकमचन्द जैन हाईस्कूल अजमेर के अध्यापक तथा अपने अन्यतम शिष्य पं. हेमचन्द्र जी के द्वारा अजमेर तेरापन्थी मन्दिर के भंडार से यशस्तिलक के अन्तर्गत उपासकाध्ययन की हस्तलिखित प्रति प्राप्त की। वह प्रति बहुत शुद्ध और सटिप्पण थी । उससे मुझे अनुवाद T भी बहुत सहायता मिली; क्योंकि उपासकाध्ययन पर कोई टीका नहीं है और सोमदेव जैसे महाकवि द्वारा रचित होने के कारण उसमें अप्रसिद्ध शब्दों के प्रयोग के साथ ही साथ शाब्दिक अनुप्रास का भी होना स्वाभाविक है । फलतः वर्णित विषय के कठिन न होने पर भी सोमदेव के शब्दों के अभिप्राय को समझने में पद-पद पर कठिनाई होती है। अतः सटिप्पण प्रति के मिल जाने से मुझे बहुत लाभ हुआ । मेरी कठिनाई में कुछ कमी हुई, और अनुवाद कार्य पूरा होने पर वह प्रति वापस कर दी गयी । अनुवाद का कार्य मैंने भारतवर्षीय दि. जैन संघ के द्वारा काशी में स्थापित जयधवला कार्यालय में उसी के निमित्त से किया था। दूसरे महायुद्ध के कारण कागज मिलना दुर्लभ हो गया। अतः यह अनुवाद प्रकाशित नहीं हो सका। जब कागज कुछ सुलभ हुआ तो संघ के प्रकाशन विभाग ने अपनी पूरी शक्ति जयधवला के प्रकाशन में ही लगाना उचित समझा। इससे उपासकाध्ययन के प्रकाशन की व्यवस्था के लिए भारतीय ज्ञानपीठ काशी के तत्कालीन व्यवस्थापक श्री बाबूलाल फागुल्ल के माध्यम से ज्ञानपीठ के मन्त्री बा. लक्ष्मीचन्द्र जी से बातचीत हुई। उन्होंने मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला के सम्पादक डॉ. प्रो. हीरालाल जी तथा डॉ. प्रो. ए. एन. उपाध्ये के परामर्शानुसार इसे मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला से प्रकाशित करने की स्वीकृति दे दी। तब मैंने पुनः उस पुराने अनुवाद की ओर ध्यान दिया। अनुवाद करते समय मैंने अजमेर की जिस प्रति का उपयोग किया था उसके आधार पर मुद्रित प्रति का संशोधन कर लेने पर भी मैंने बाकायदा उसके पाठान्तर नहीं लिये थे । अतः अब पुनः उसकी आवश्यकता प्रतीत हुई और मैंने पं. हेमचन्द्र जी को लिखा, तो उन्होंने मुझे सूचित किया कि भंडार के प्रबन्धक अब किसी भी तरह बाहर भेजने के लिए प्रति देने को तैयार नहीं हैं। मुझे बड़ी निराशा हुई । तब श्रीबाबूलाल जी ने जयपुर से पं. चैनसुखदास जी के माध्यम से श्रीमहावीर जी अतिशय क्षेत्र के अनुसन्धान विभाग के डॉ. कस्तूरचन्द जी काशलीवाल के द्वारा एक प्रति प्राप्त की। यह प्रति शुद्ध है, किन्तु इसमें कोई टिप्पण नहीं है। मुझे सटिप्पण प्रति की आवश्यकता थी । तब मुझे भंडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना की उस प्रति का स्मरण या जिसका निर्देश प्रो. हान्दिकी ने अपनी विद्वत्तापूर्ण पुस्तक 'यशस्तिलक ऐंड इंडियन कल्चर' में किया है। मैंने बाबूलाल जी से कहा और उन्होंने पूना को लिखा । थोड़ी-सी लिखा-पढ़ी सम्पादकीय :: 9
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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