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________________ के पश्चात् वहाँ से प्रति आ गयी, जो शुद्ध होने के साथ सटिप्पण भी है। इन उदार विद्यारसिकों का अनुकरण हमारे शास्त्रभंडारों के संरक्षकों को भी करना चाहिए, और प्राचीन प्रतियों को भंडारों में आजन्म कैद न रखकर उन्हें अनुसन्धाताओं तथा सम्पादकों के लिए सुलभ बनाना चाहिए। इन्हीं दो प्रतियों के आधार पर जिन्हें एक ही कहना उचित होगा, क्योंकि दोनों में कदाचित ही किञ्चित् पाठ-भेद पाया जाता है, मैंने उपासकाध्ययन के मूल पाठ को व्यवस्थित किया। इन प्रतियों का परिचय नीचे दिया जा रहा है ....----230 सम्पादन में उपयुक्त प्रतियों का परिचय [आ] भंडारकर रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना से प्राप्त प्रति का नम्बर 1902-1907 है और नया नम्बर 23 है। इसकी पृष्ठ संख्या 434 है। प्रत्येक पत्र में 9 पंक्तियों और प्रत्येक पंक्ति में 34 अक्षर हैं। प्रत्येक पृष्ठ के चारों ओर के हाशियों पर टिप्पण दिये हुए हैं। ये टिप्पण श्रीदेवसेनकृत टिप्पण से भी विशेष उपयोगी हैं। श्रीदेव के टिप्पण बहुत परिमित शब्दों पर हैं। उनसे इस प्रति के टिप्पण विस्तृत हैं। प्रति के अन्त में मूलग्रन्थ आठ हजार श्लोक परिमाण और टिप्पण दो हजार श्लोक परिमाण लिखे हैं। श्रीदेव कृत टिप्पण 1275 श्लोक परिमाण ही हैं। मैंने प्रायः सभी टिप्पण इसी प्रति के आधार से दिये हैं। प्रति का लेखनकाल संवत् 1742 है। प्रति के अन्त में विस्तृत लेखक प्रशस्ति इस प्रकार दी हुई है___ 'संवत् 1742 वर्षे भाद्रपदमासे शुक्लपक्षे चतुर्दशी तिथौ मंगलवासरे पूर्वाभाद्रपदनक्षत्रे धृतिनामयोगे साहि आलममौजमराज्ये टोकनगर राज्य प्रवर्तमाने श्रीशान्तिनाथ चैत्यालये श्रीमूलसंघे नन्द्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीमन्नरेन्द्रकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्रीसुरेन्द्रकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भट्टारक श्री 5 जगत्कीर्तिजी, तदाम्नाये खण्डेलवालान्वये सोनीगोत्रे साहहीरा तद्भार्या हीरादे तत्पुत्रौ द्वौ प्र. सा. चतुर्भुज तद्भार्या चतरंगदे द्वितीयपुत्र सा. मोहनदास तस्य तृतीयभार्या मुक्तादे तौ द्वौ पुत्रौ मध्ये प्र. पुत्र सा. चतुर्भुज तत्पुत्रौ द्वौ प्रथम पुत्र सा. चन्द्रभाण भार्या चांदणदे द्वितीयपुत्र सा. स्यामदास भार्या सुहागदे तत्पुत्र चिरंजीव लोकमणि भार्या लोकमदे एतयोर्द्वयोः पुत्रयोर्मध्ये व्रतधर्मरत जिनवन्दनातत्पर, गुरुभक्तिपरायण दयादान सत्यवचनरते दु सं स्यामदासेनेदं यशस्तिलकं पुस्तकं आचार्यजी श्री 5 ज्ञानकीर्तये दशलाक्षणव्रत उद्यापनार्थं प्रदत्मांछा। ज्ञानदानात् भवेत् ग्यानी सुषी चाप्यन्नदानतः । निर्भयो जीवदानेन नीरोगो भेषजाद् भवेत् ॥ शुभमस्तु ॥ पुस्तकमिदं यावत् चन्द्रदिवाकरधराधरधरां वर्तन्ते तावत् तिष्ठन्तु ॥ श्री जिन सदा जयतु।' इस प्रशस्ति का सारांश यह है कि संवत् 1742 में भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी के दिन खंडेलवाल जातीय श्यामदास सोनी ने यह यशस्तिलक नाम की पुस्तक आचार्य ज्ञानकीर्ति के लिए दशलाक्षणव्रत के उद्यापन के लिए प्रदान की। पूना की इस प्रति को आदर्श प्रति मानकर हमने 'आ' संज्ञा प्रदान की है। । [ज] जयपुर वाली प्रति को 'ज' संज्ञा दी गयी है। यह प्रति जयपुर के दि. जैनमन्दिर बड़ा तेरह पन्थियों के शास्त्रभंडार की है। प्रति शुद्ध है, अक्षर भी सुन्दर और स्पष्ट हैं। इसकी पत्र-संख्या 344 है। प्रत्येक पृष्ठ में 11 पंक्तियाँ और प्रत्येक पंक्ति में 35 से 38 तक अक्षर हैं। कागज जीर्ण हो चला है। संवत् 1719 की लिखी हुई है। अर्थात् पूना की प्रति से 23 वर्ष प्राचीन है। अन्त में लेखक प्रशस्ति भी है किन्तु अक्षर अस्पष्ट हो गये हैं। प्रशस्ति इस प्रकार है 'संवत् 1719 मिति फागुण सितात् अष्टमी शुक्लपक्ष वार वृहस्पतिवार अवावती नगरिमध्ये महाराजाधिराज...पुस्तक लिषाइतं । विमलनाथ चैत्यालय मूलसंघे। लिषतं जोसिटोडर जाति दीवाल।' 10 :: उपासकाध्ययन
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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