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________________ [२४ ] अर्थ-यह आत्मा जब समीचीन दर्शनगुण से सत्तारूप वस्तु को देखता है, सम्य ग्ज्ञान से द्रव्य और पर्याय को जानता है, तथा सम्यक्त्व से यथार्थ वस्तु का श्रद्धान करता है, तब चारित्र के दोषों को दूर करता है ।। १८ ॥ गाथा- एए तिगिण वि भावा हवंति जीवस्स मोहरहियरस । णियगुणमाराहतो अचिरेण वि कम्म परिहरइ ॥ १६ ॥ छाया- एते त्रयोऽपि भावाः भवन्ति जीवस्य मोहरहितस्य । निजगुणमाराधयन् अचिरेणापि कर्म परिहरति ॥ १६ ॥ अर्थः-ये सम्यग्दर्शनादि तीनों भाव मिथ्यात्वरहित जीव के होते हैं। उस समय यह जीव अपने चेतनागुण का चिन्तवन करता हुआ शीघ्र ही कर्म का नाश करता है ॥१६॥ गाथा- संखिज्जमसंखिज्जगुणं च संसारिमेरूमत्ता थे। सम्मत्तमणुचरंता करंति दुक्खक्खयं धीरा ॥२०॥ छाया- संख्येयामसंख्येयगुणां संसारिमेरूमात्रां णं। सम्यक्त्वमनुचरन्तः कुर्वन्ति दुःखक्षयं धीराः ॥२०॥ अर्थ- सम्यक्त्व का आचरण करते हुए धैर्यवान् पुरुष संसारी जीवों की मर्यादा रूप कर्मों की संख्यातगुणी तथा असंख्यातगुणी निर्जरा करते हैं और कर्म के उदयजनित दुःख का नाश करते हैं ।। २० ।। गाथा- दुविहं संजमचरणं सायारं तह हवे णिरायारं । सायारं सग्गंथे परिग्गहा रहिय खलु णिरायारं ॥ २१ ॥ छाया- द्विविधं संयमचरणं सागारं तथा भवेत् निरागारम् । सागारं सग्रन्थे परिग्रहाद्रहिते खलु निरागारम् ॥ २१ ॥ अर्थ-संयमचरण चारित्र दो प्रकार का है, एक सागार दूसरा निरागार । इनमें से परिग्रह सहित श्रावक के सागार चारित्र होता है और परिग्रह रहित मुनि के निरागार चारित्र होता है ।। २१ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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