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________________ [ २३ ] गाथा-अण्णाणं मिच्छत्त वजहि णाणे विसुद्धसम्मत्ते । अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए ॥१५॥ छाया-अज्ञानं मिथ्यात्वं वजय ज्ञाने विशुद्धसम्यक्त्वे। ___अथ मोहं सारम्भं परिहर धर्मे अहिंसायाम् ॥१५॥ अर्थ-हे भब्य जीव । तू ज्ञान के होने पर अज्ञान को, निर्मल सम्यग्दर्शन के होने पर मिथ्यादर्शन को और अहिंसा-लक्षण धर्म के होने पर आरम्भ सहित मोह को छोड़ दे ॥१५॥ गाथा-पव्वज संगचाए पयट्ट सुतवे सुसंजमे भावे । होइ सुविसुद्धझाणं णिम्मोहे वीयरायते ॥१६॥ छाया-प्रव्रज्यायां संगत्यागे प्रवर्तस्व सुतपसि सुसंयमे भावे । ___ भवति सुविशुद्धध्यानं निर्मोहे वीतरागत्वे ॥१६॥ अर्थ-हे भव्य जीव ! तू परिग्रह के त्यागरूप दीक्षा को ग्रहण कर और उत्तम संयम रूप भाव होने पर उत्तम तप धारण कर। क्योंकि मोहरहित वीतरागभाव होने पर निर्मल ध्यान प्राप्त होता है ॥१६॥ गाथा- मिच्छादसणमग्गे मलिणे अण्णाणमोहदोसेहिं । बज्झति मूढजीवा मिच्छत्ताबुद्धिउदएण ॥ १७ ॥ छाया- मिथ्यादर्शनमार्गे मलिने अज्ञानमोहदोषैः। ___ बध्यन्ते मूढजीवाः मिथ्यात्वाबुद्धयुदयेन ॥ १७ ॥ अर्थ-मूढ़ जीव अज्ञान और मिथ्यात्व के दोषों से मलिन मिथ्यामार्ग में मिथ्या दर्शन और मिथ्याज्ञान के उदय से प्रवृत्ति करते हैं ॥ १७ ॥ गाथा- सम्मईसण पस्सदि जाणदि णाणेण दवपजाया। सम्मेण य सद्दहदि य परिहरदि चारित्तजे दोसे ॥ १८ ॥ छाया- सम्यग्दर्शनेन पश्यति जानाति ज्ञानेन द्रव्यपर्यायान् । सम्यक्त्वेन च श्रद्दधाति च परिहरति चारित्रजान दोषान् ॥ १८॥ .
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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