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________________ [ १०१ ] छाया - आरुह्य अन्तरात्मानं बहिरात्मानं त्यक्त्वा त्रिविधेन । ध्यायते परमात्मा उपदिष्टं जिनवरेन्द्रैः ॥ ७ ॥ अर्थ -मन वचन काय से बहिरात्मा को छोड़कर और अन्तरात्मा का श्राश्रय लेकर परमात्मा का ध्यान करना चाहिये, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है ॥ ७ ॥ गाथा - बहिरत्थे फुरियमरणो इंदियदारेण गियसरूवचओ । णियदेहं अप्पाणं अज्झवसदि मूढदिट्ठी ॥ ८ ॥ छाया - बहिरर्थे स्फुरितमनाः इन्द्रियद्वारेण निजस्वरूपच्युतः । ' निजदेहं आत्मानं अध्यवस्यति मूढदृष्टिस्तु ॥ ८ ॥ अर्थ - मिध्यादृष्टि बहिरात्मा स्त्री पुत्रादि बाह्य पदार्थों में मन लगाकर और इन्द्रियों के द्वारा अपने स्वरूप को भूलकर अर्थात् इन्द्रियों को आत्मा समझकर अपने शरीर को ही आत्मा जानता है ॥ ८ ॥ - यिदेहसरित्थं पिच्छिऊरण परविग्गहं पयत्ते । यपि गहियं भाइज्जइ परमभाए ॥ ६॥ गाथा - छाया - निजदेहसदृत्तं दृष्ट्वा परविग्रहं प्रयत्नेन । अचेतनं अपि गृहीतं ध्यायते परमभावेन ॥ ६ ॥ अर्थ - मिथ्यादृष्टी जीव अपने शरीर के समान दूसरे के शरीर को देखकर उसको अचेतन रूप से ग्रहण करने पर भी बड़े यत्न से दूसरे की आत्मारूप विचार करता है ॥ ६॥ गाथा—सपरज्भवसाएणं देहेसु य अविदित्थमप्पाणं । सुयदाराईविसए मरणुयागं वड्ढए मोहो ॥ १० ॥ छाया - स्वपराध्यवसायेन देहेषु च अविदितार्थमात्मानम् । दिविषये मनुजानां वर्द्धते मोहः ॥ १० ॥ अर्थ - मोही जीव देहादि में अपने और दूसरे की आत्मा का निश्चय करने से आत्मा के असली स्वरूप को नहीं जानता है । इसलिये स्त्री पुत्रादि में मनुष्यों का मोह बढ़ता है ॥ १० ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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