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________________ [१००] गाथा-तिपयारो सो अप्पा परमंतरबाहिरो दु हेऊणं । तत्थ परो भाइजई अंतोवारण चयहि बहिरप्पा ॥४॥ ...छाया-त्रिप्रकारः स आमा परमन्तः बहिः तु हित्वा । तत्र परं ध्यायते अन्तरूपायेन त्यज बहिरात्मानम ॥४॥ अर्थ-वह श्राब्मा तीन प्रकार का है-परमात्मा, अन्तरात्मा और वहिरात्मा। उनमें बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा अर्थात् भेदज्ञानी होकर परमात्मा का ध्यान किया जाता है। इसलिये हे मुनि ! तू शरीर और आत्मा को ___ अभिन्न मानने वाले बहिरात्मा के परिणामों का त्याग कर ॥४॥ गाथा-अक्खाणि बहिरप्पा अंतरअप्पा हु अप्पसंकप्पो। कम्मकलंकविमुक्को परमप्पा भएणए देवो ॥५॥ छाया-अक्षाणि बहिरात्मा अन्तरात्मा स्फुटं आत्मसंकल्पः। कर्मकलंकविमुक्तः परमात्मा भएयते देवः ॥५॥ अर्थ-स्पर्शनादि इन्द्रियां तो बहिरात्मा हैं और अन्तरंग में प्रगट अनुभव रूप आत्मा का संकल्प अन्तरात्मा है तथा द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रूप कलंकरहित आत्मा परमात्मा है, और वही देव है॥५॥ गाथा-मलरहिओ कलचत्तो अणिंदिरो केवलो विसुद्धप्पा। परमेट्ठी परमजिणो सिवंकरो सासओ सिद्धो ॥६॥ छाया-मलरहितः कलत्यक्तः अनिन्द्रियः केवलः विशुद्धात्मा। ___परमेष्ठी परमजिनः शिवंकरः शाश्वतः सिद्धः ॥६॥ अर्थ-जो कर्मरहित है, शरीररहित इन्द्रिय ज्ञान रहित है, केवल ज्ञानी है, अत्यन्त शुद्ध आत्मा वाला है, परमपद में स्थित (ठहरा हुआ) है, सब कर्मों को जीतने वाला है, जीवों का कल्याण करने वाला है, अविनाशी है और सिद्ध पद को प्राप्त कर चुका है, वह परमात्मा कहलाता है॥६॥ गाथा-आरूहवि अंतरप्पा बहिरप्पा छंडिऊण तिविहेण । ___ झाइज्जइ परमप्पा उवटुं जिणवरिंदेहिं ॥ ७ ॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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