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________________ [१०२] गाथा-मिच्छाणाणेसु रओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो। मोहोदयेण पुणरवि अंगं सम्मएणए मणुओ ॥११॥ छाया-मिथ्याज्ञानेषु रतः मिथ्याभावेन भावितः सन्। ___ मोहोदयेन पुनरपि अंगं वं मन्यते मनुजः ॥११॥ अर्थ-मिथ्याज्ञान में लीन हुआ मनुष्य मिथ्या परिणाम की भावना रखता हुआ मिथ्यात्व कर्म के उदय से फिर भी शरीर को आत्मा मानता है ॥११॥ गाथा-जो देहे हिरवेक्खो णिइंदो णिम्ममो णिरारंभो । आदसहावे सुरओ जोई सो लहइ णिव्वाणं ॥१२॥ छाया-यः देहे निरपेक्षः निद्वंद्वः निर्ममः निरारम्भः । आत्मस्वभावे सुरत; योगी स लभते निर्वाणम् ॥१२।। अर्थ-जो योगी शरीर में उदासीन हैं, रागद्वेषादि कलह रहित है, ममत्व रहित है, खेती व्यापारादि आरम्भरहित है और आत्मा के स्वभाव में पूरी तरह लीन है वह मोक्ष को प्राप्त करता है ।।१२।। गाथा-परदव्वरो वझदि विरो मुच्चेइ विविहकम्मेहिं । एसो जिणउवदेसो समासदो बंधमोक्षस्य ।।१३।। छाया-परद्रव्यरतः बध्यते विरतः मुच्यते विविधकर्मभिः। एषः जिनोपदेशः समासतः बन्धमोक्षयोः॥१३॥ अर्थ-जो जीव शरीरादि पर पदाथों में राग रखता है वह अनेक प्रकार के कर्मों से बँधता है, और जो पर पदार्थों में उदासीन रहता है वह अनेक प्रकार के कर्मों से नहीं बँधता है। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् ने संक्षेप से बन्ध और मोक्ष के स्वरूप का उपदेश दिया है ॥१३॥ गाथा-सद्दव्वरो सवणो सम्माइट्ठी हवेइ णियमेण । सम्मत्तपरिणओ उण खवेइ दुट्टकम्माई ॥१४॥ छाया-स्वद्रव्यरतः श्रमणः सम्यग्दृष्टिः भवति नियमेन । सम्यक्त्वपरिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्टकर्माणि ॥१४॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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