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________________ ॥ (६) मोक्ष पाहुड ॥ गाथा-णाणमयं अप्पाणं उवलद्धं मेण झडियकम्मेण । चइऊण य परदव्वं णमो तस्स देवस्स ॥१॥ छाया-ज्ञानमय आत्मा उपलब्धः येन-क्षरितकर्मणा । त्यक्त्वा च परद्रव्यं नमो नमस्तस्मै देवाय ॥१॥ . अर्थ-कर्मों का क्षय करने वाले जिसने परद्रव्य को छोड़कर ज्ञानरूप आत्मा को प्राप्त किया है, उस देव के लिये नमस्कार हो ॥१॥ गाथा-णमिऊण य तं देवं अणंतवरणाणदंसणं सुद्धं । वोच्छं परमप्पाणं परमपयं परमजोईणं ॥२॥ छाया-नत्वा च तं देवं अनन्तवरज्ञानदर्शनं शुद्धम् । ___वक्ष्ये परमात्मानं परमपदं परमयोगिनाम् ॥ २॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं कि मैं अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन को धारण करने वाले तथा १८ दोषरहित सर्वज्ञ वीतराग देव को नमस्कार करके श्रेष्ठ ध्यान वाले मुनियों के लिये, उत्कृष्ट पद के धारक परमात्मा का स्वरूप कहूंगा ॥२॥ गाथा-जं जाणिऊण जोई जोअत्थो जोइऊण अणवरयं । अव्वावाहमणंतं अणोवमं लहइ णिवाणं ॥३॥ छाया-यत् ज्ञात्वा योगी योगस्थः दृष्ट्वा अनवरतम्। . अव्याबाधमनन्तं अनुपमं लभते निर्वाणम् ॥३॥ अर्थ-जिसको जानकर ध्यान में स्थित (लगा हुआ) योगी सदैव उस परमात्मा का अनुभव करता हुआ वाधा रहित, अविनाशी और उपमारहित मोक्ष को प्राप्त करता है ॥३॥
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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