SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [६] गाथा-मायावेल्लि असेसा मोहमहातरुम्मि प्रारूढा । विसयविसपुष्फफुल्लिय लुणंति मुणि णणसत्थेहिं ॥१५॥ छाया-मायावल्लिं अशेषां मोहमहातरुवरे आरूढाम् । ___ विषयविषपुष्पपुष्पिता लुनन्ति मुनयः ज्ञानशस्त्रैः ॥१५८।। अर्थ-दिगम्बर मुनि मोहरूपी बड़े वृक्ष पर चढ़ी हुई और विषय रूपी विष के पुष्प से फूली हुई सम्पूर्ण मायाचार रूपी बेल को सम्यग्ज्ञान रूपी हथियारों से काटते हैं ॥ १५८ ॥ गाथा-मोहमयगारवेहिं य मुक्का जे करूणभावसंजुत्ता । ते सव्वदुरियखंभं हणंति चारित्तखग्गेण ॥१५॥ छाया-मोहमदगारवैः च मुक्ताः ये करुणभावसंयुक्ताः। ... ते सर्वदुरितस्तम्भ घ्नन्ति चारित्रखड्गेन ॥१५॥ अर्थ-जो मुनि मोह, मद और गौरवरहित हैं तथा करुणभाव सहित हैं, वे चारित्ररूपी तलवार से सम्पूर्ण पापरूपी स्तम्भ (वृक्ष के तने) को काटते हैं ॥ १५६ ॥ गाथा-गुणगणमणिमालाए जिणमयगयणे णिसायरमुणिंदो। तारावलिपरियरिओ पुरिणमइंदुव्व पवणपहे ॥१६०।। छाया-गुणगणमणिमालया जिनमतगगने निशाकरमुनीन्द्रः । तारावलिपरिकलितः पूर्णिमेन्दुरिव पवनपथे ।।१६०।। अर्थ-जैसे आकाश में ताराओं के समुदाय से घिरा हुआ पूर्णमासी का चन्द्रमा शोभायमान होता है, वैसे ही जिनमत रूपी आकाश में मुनीन्द्र रूपी चन्द्रमा मूलगुणों और उत्तरगुणों के समुदाय से शोभायमान होता है ।।१६।। गाथा-चकहररामकेसवसुखरजिणगणहराइसोक्खाई। चारणमुणिरिद्धीओ विसुद्धभावा परा पत्ता ।।१६।। छाया- चक्रधररामकेशवसुरवरजिनगणधरादिसौख्यानि । चारणमुन्यद्धीः विशुद्धभावाः नराः प्राप्ताः ॥१६१।।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy