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________________ [१७] अर्थ-विशुद्धभावों के धारक मुनिवर चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण, इन्द्र, तीथकर, गणधरादि के सुखों को और चारणमुनियों की आकाशगामिनी आदि ऋद्धियों को प्राप्त होते हैं ॥१६१॥ . गाथा- सिवमजरामरलिंगमणोवममुत्तमं परमविमलमतुलं । । पत्ता वरसिद्धिसुहं जिणभावणभाविया जीवा ॥१६२॥ .. छाया-शिवमजरामरलिंग अनुपममुत्तमं परमविमलमतुलम् । प्राप्ता वरसिद्धिसुखं जिनभावनाभाविता जीवाः ॥१६२।। अर्थ- जिनेन्द्र के स्वरूप की भावना सहित जीव उस उत्तम मोक्ष सुख को पाते हैं, जो कल्याणरूप है, जरामरणरहित होना जिसका चिह्न है, उपमारहित है, सब से उत्कृष्ट है, सब प्रकार के कर्ममल से रहित है और तुलनारहित है ॥१६२॥ गाथा- ते मे तिहुवणमहिया सिद्धा सुद्धा णिरंजणा णिचा । दितुं वरभावसुद्धिं दसण णाणे चरित्ते य ॥१६३।। छाया- ते मे त्रिभुवनमहिताः सिद्धाः शुद्धाः निरञ्जना नित्याः । __ ददतु वरभावशुद्धिं दर्शने ज्ञाने चारित्रे च ॥१६॥ अर्थ-वे सिद्ध परमेष्ठी मेरे दर्शन, ज्ञान और चारित्र गुण में उत्तम भावों की शुद्धता प्रदान करें, जो तीन लोक में पूजनीय, विशुद्ध, कर्ममलरहित और नित्य हैं ॥१६॥ गाथा-किं जंपिएण बहुणा अत्थो धम्मो य काममोक्खो य । अण्णेवि य वावारा भावम्मि परिट्ठिया सव्वे ॥१६४॥ छाया-किं जल्पितेन बहुना अर्थो धर्मश्च काममोक्षौ च । __ अन्येऽपि च व्यापाराः भावे परिस्थिताः सर्वे ॥१६॥ अर्थ-आचार्य कहते हैं बहुत कहने से क्या लाभ है, क्योंकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों पुरुषार्थ तथा अन्य जो कुछ कार्य हैं, वे सब शुद्धभाव के ही आधीन हैं।
SR No.022411
Book TitleAshtpahud
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasdas Jain
PublisherBharatvarshiya Anathrakshak Jain Society
Publication Year1943
Total Pages178
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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