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________________ ४ सांढ ही क्यों उसकी मौतका कारण बना ? इस विचारधारा से वह गंभीर चिन्तनमें डूब जाता है और उस घटना का भीतरी रहस्य जानने की कोशिश करता है । यही बात विश्व के अन्त - स्तम रहस्यको समझने के प्रयत्नके बारेमें कही जा सकती है । इस तरह विश्व के रहस्यको अवगत करनेका विविध पुरुषोंके प्रयत्नका जो परिणाम उसे शस्त्र के रूप में संकलित करके हम 'तत्त्वज्ञान' के नामसे पुकारते हैं । किन्तु व्यक्तिकी अपूर्णता के कारण यह तत्त्वज्ञान भी अपूर्ण ही रह जाता है । और दुनिया - समष्टि की दृष्टिसे अर्थात् विश्व के समग्र प्राणियों एवं मनुष्योंकी अपेक्षासे यह तत्त्वज्ञान अपूर्ण रहते हुए भी व्यक्तिकी दृष्टि से यह अवश्य संपूर्ण हो सकता है । जो इसे संपूर्ण बनाता है उसे हम ईश्वर, परमेश्वर या परमात्मा के नाम से पहिचानते है । ईश्वर या परमेश्वर विश्वके रहस्यको, उसकी चरम सीमा तक, इस ढंग से जानते हैं कि उनके लिये फिर कुछ भी ज्ञ तव्य शेष नहीं रह जाता; उनकी जिज्ञासा तृप्त हो जाती है । इस प्रकार वैयक्तिक- आत्मिक परिपूर्ण विकासके बलसे निष्पन्न होनेवाले परिपूर्ण तत्त्वज्ञान के कारण ही ईश्वर हमारे लिये उपास्य बन जाते हैं । ईश्वर-उपासनाका यही सार है कि, हम हमारा विकास और हमारा दर्शन - तत्वज्ञान - परिपूर्ण करनेका पुरुषार्थ करें। भारतीय दर्शन और धर्मकी आधारशिला - विश्वका सच्चा दर्शन प्राप्त करके आत्मासे परमात्मा बननेका, नरसे नारायण बननेका, अर्थात् जीवनका विकास करने का प्रयत्न, जिज्ञासामूलक होनेसे, दुनियाभर के मनुष्य अनादि काल से करते आये हैं और अब भी कर रहे है। हां, किसी प्रदेशमें यह प्रयत्न कम गहराई तक पहुँच सका, तो कहीं अधिक गहराई तक। जहां ऐसे प्रयत्न अधिक से अधिक गहराई तक पहुंच सके हैं ऐसे देशों में भारतवर्षका स्थान श्रेष्ठ है । और इसी वजहसे भारतवर्ष 'धर्मभूमि' के गौरवयुक्त बिरुद से अंकित है । विश्वका यथास्थित दर्शन करके धर्मका मार्ग निश्चित करने का प्रयत्न करनेवाले भारतीय छः दर्शन - जैन, बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, वैशेषिक और मीमांसक - बहुत प्रसिद्ध हैं । इन दर्शनोंने दुनियाका यथार्थ दर्शन करनेका प्रयत्न करके उसके आधार पर धर्ममार्गकी स्थापना की । इसका मतलब यह हुआ कि दर्शन यह धर्मकी आधारशिला है; धर्ममार्गका संस्थापन करके ही दर्शन चरितार्थ होता है । 1 जैन दर्शन-जैन तत्त्वज्ञान व जैनधर्म जैन, बौद्ध व ब्राह्मण ये तीन धर्म आर्यधर्म या आर्यसंस्कृति के मुख्य अंग गिने जाते हैं । इन तीनोंका भी श्रमण संस्कृति और ब्राह्मणसंस्कृति नामक दो भेदोंमें संक्षेप किया जाता है, और श्रमण संस्कृतिमें जैन धर्म व बौद्ध धर्मका समावेश हो जाता है। जैनधर्मकी आधारशिला है जैन दर्शन या जैन तत्त्वज्ञान | यह जैन दर्शन या जैन तत्वज्ञान और कोई नहीं, किन्तु
SR No.022410
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayodaysuri
PublisherJashwantlal Girdharlal Shah
Publication Year1951
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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