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________________ ८८ 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः का तात्पर्य इस अनादि अनन्त संसार में निरन्तर प्रवर्तमान सुख और दुःख प्राणिमात्र के साथ संलग्न रहते हैं । एक दृष्टिसे तो यहां तक कह सकते हैं कि सुख दुःख के मिश्रणका ही नाम संसार है। दुःखकी मिलावट से मुक्त केवल - आत्यन्तिक - सुख ही रह जाय तो वही मुक्ति या मोक्ष बन जाता है । सुख और दुःखकी भावना ही प्राणिमात्रकी प्रवृत्तिकी प्रेरक है । हरेक जीव सुखके लिये लालायित रहता है और दुःखको दूर करनेकी के शिश किया करता है । इस तरह सुखदुःख प्राणिमात्रको प्रवृत्तिशील बननेकी प्रेरणा देते हैं | इतर प्राणियोंसे मनुष्यका कुछ - बडा भारी - फर्क है । सुख और दुःखके कारण इतर प्राणियोंकी तरह मनुष्य केवल प्रवृत्तिशील ही नहीं बनता, वह विचारशील भी बन जाता है । यह चिन्तनशीलता या विचारशीलता ही मनुष्यको इतर प्राणिसृष्टिसे भिन्न व उसके ऊपर प्रस्थापित करती है । हमारे शास्त्रकारों व ज्ञानी-ध्यानो - योगियोंने मनुष्यजीवनको दुर्लभ व सर्वश्रेष्ठ कहा है वह इसी कारणसे | चिन्तनशीलता जितनी उज्ज्वल और उन्नत उतना ही जीवन अधिक निर्मल व प्रगतिशील बनते जाता है, क्योंकि यह चिन्तनशीलता ही मनुष्यको नीतिमत्ता, सदाचार व समुज्ज्वल चारित्र के मार्गपर अग्रसर करती है । ज्ञानियोंने ' ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः ' का जो अमर मंत्र सुनाया है उसका यही तात्पर्य है । तत्वज्ञान और ईश्वर - उपासनाका हेतु इस चिन्तनशीलता ने मनुष्यको अपनी चारों ओर फैले हुए विश्वकी निर्मर्याद विविधता और उसके अगणित पहलुओं पर विचार करके विश्वका रहस्य हृदयंगम करनेको अनादि कालसे मजबूर बना दिया है । ज्ञानी, ध्यानी, योगी और विज्ञानी सभीने अपने अपने ढंग से विश्वनियमको और विश्व के रहस्यको पा कर विश्वका यथास्थित दर्शन करनेकी भरसक कोशिश की है और आज भी कर रहे हैं। किसी घटनाको देखते ही उसका स्थूल कारण तो सामान्य मनुष्य को समझमें जलदी आ जाता है, लेकिन जिसके मन और बुद्धि अधिक चिन्तनशील होते हैं उसे स्थूल कारणके समझनेमात्र से सन्तोष नहीं होता, वह उसके भीतरी रहस्यको जाननेको उत्सुक हो जाता है । उदाहरणार्थ - दस बच्चे आनन्दमें खेल रहे हैं, एक मदोन्मत्त सांढ पागलसा दौडता आता है, किसी एक बच्चेको अपने सपाटेमें लेता है, और क्षणभर में उसे निष्प्राण करके चला जाता है । सामान्य मनुष्य सोच कर कहते हैं, सांढकी मारके कारण बच्चा मर गया । विशेष चिन्तनशील मनुष्यको इतनेसे संतोष नहीं होता; वह सोचता है : इतने बच्चे खेलते थे उनमें से यही क्यों मारा गया ? और मौतके अनेक तरीके होते हुए भी प्राक्कथन "
SR No.022410
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayodaysuri
PublisherJashwantlal Girdharlal Shah
Publication Year1951
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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