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________________ अनन्तज्ञानी सर्वज्ञ ऐसे जिनो या तीर्थंकरोंने किया हुआ विश्वका दर्शन ही है । सर्वज्ञ तीर्थकरोंने-जिनोंने-अपने सर्वस्पर्शी दर्शनके अनुकूल जिस धर्ममार्गकी प्ररूपणा की वह है जैनधर्म । जैनधर्षकी सूक्ष्मातिसूक्ष्म अहिंसा___'अहिंसा तो जैनधर्मकी ही'-इस प्रकार जैनधर्मकी अहिंसा जनतामें एक कहावत या मिसालरूप हो गई है । अहिंसाके सूक्ष्मातिसूक्ष्म अवलोकनकी जिस गहराई तक जैन धर्म-जैन दशन-पहूंच पाया है दुनियाका अन्य कोई धर्म वहां तक नहीं पहूंच सका; यहां तक कि किसी किनी विचारकके दिमागमें इतनी सूक्ष्म अहिंसा उतर न सकनेके कारण वे उसकी निन्दा करने या मजाक उडानेकी हद तक चले जाते हैं। किन्तु सच देखा जाय तो अहिंसाकी यह मजाक या निन्दा ही उस व्यक्तिकी खुदकी कम समझकी निशानी व अहिंसाकी प्रशस्ति बन जाता है । इस अहिंसाके बारेमें थोडासा विचार करें। ऐसी सूक्ष्माति. सूक्ष्म अहिंसाकी स्थापनाका आधार है विश्वमें सर्वत्र व्याप्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म जीवोंकी हस्ती। तीर्थंकरोंने अपने ज्ञानसे जब देखा कि-चलते फिरते जीवांके अतिरिक्त पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि ओर वनस्पतिमें ही नहीं, उनसे भी अधिक सूक्ष्म, निगोद जैसे शरारोंमें भी हमारे ही जैसो आत्माका वास है और उन्हें भी हमारे माफिक सुख दुःखका अनुभव होता है; और इतना ही क्यों, आत्मविकासकी-आत्मासे परमात्मा बननेको क्षमता ( Potentiality ) उनमें भी रही हुइ है; ऐसी हालतमें भला वे उनको जरा भी तकलीफ पहूंचे ऐसी प्रवृत्तिको किस तरह मंजूर रख सकते हैं ? एक छोटोसी मिसाल : एक मनुष्य देखता है कि, अपने सामनेसे गुजरता हुआ रास्ता कंटक, कंकर और काचके टुकडोंसे आकीर्ण है, तब फिर वह उस रास्ते पर चलनेवालेको खूब समल समल कर चलनेको एवं बिलकुल अप्रमत्त-सावधान-हो कर ही कदन उठानेकी चेतावनी देनेके सिवा और कर हो क्या सकता है ! यही बात अहिंसाके बारे में समझनी चाहिए-तीर्थकरोने जैसा देखा वैसा कहा । "उपयोगे धर्मः" या "समयं गोयम ! मा पमायए" ("सावधानीके बगैर धर्म नहीं " और " हे गौतम ! समयमात्रके लिए भी असावधान नहीं रहना " ) इन सूत्रोंका यही तात्पर्य है । और इसी कारणसे अहिंसा जैनधर्मका प्राण बन गई है । और अन्य व्रत, नियम वगैरह इस अहिंसाको मध्यबिन्दुमें रखते हुए उसकी पुष्टि एवं उसके यथार्थ पालनके लिये हि बनाये गये हैं। इसका यथार्थ पालन हम न कर सके तो यह दोष या कमजोरी हमारी है; इसके लिये जैनधर्म या अहिंसाको दोषित मानना यह तो मुखके ऊपर लगे हुए दागके लिए आयने को दोषित मानने जैसा बेहूदा है। अनेकान्तवाद : असा व सत्यका सहायक अहिंसाके सिद्धान्तके उपरान्त जैन दर्शनकी मौलिक देन उसका स्याद्वाद या अनेकान्त
SR No.022410
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayodaysuri
PublisherJashwantlal Girdharlal Shah
Publication Year1951
Total Pages332
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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