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________________ प्रस्तावना ] समयसारः। जबतक साक्षात् शुद्धोपयोगकी प्राप्ति न होय श्रेणी न चढे तबतक तो शुभरूप व्यवहारका भी बाह्य आलंबन रहता है । तथा दूसरा साक्षात् शुद्धोपयोगरूप वीतराग चारित्रका होना है वह अनुभवमें शुद्धोपयोगकी साक्षात् प्राप्ति है उसमें व्यवहारका भी आलंबन नहीं है और शुद्धनयका भी आलंबन नहीं, क्योंकि आप साक्षात् शुद्धोपयोगरूप हुआ तब नयका आलंबन कैसा? । नयका आलंबन तो जबतक राग अंश था तबतक ही था । इस तरह अपने स्वरूपकी प्राप्तिके होनेवाद पहले तो श्रद्धामें नयपक्ष मिट जाता है पीछे साक्षात् वीतराग होय तब चारित्रका पक्षपात मिटता है । ऐसा नहीं है कि, साक्षात् वीतराग तो हुआ नहीं और शुभ व्यवहारको छोड़ खच्छंद प्रमादी हो प्रवते । ऐसा हो तो नयविभागमें समझा ही नहीं उलटा मिथ्यात्व ही दृढ किया । इस प्रकार मंद बुद्धियोंके भी यथार्थ ज्ञान होनेका प्रयोजन जान इस ग्रंथकी भाषावचनिकाका प्रारंभ किया गया है ऐसा जानना ॥" - भाषाकारकी भूमिकासे यह तो सिद्ध ही है कि इसके मूलकी श्रीकुंदकुंदाचार्य हैं । वे पट्टावलियोंके अनुसार वि० सं० ४९ में हुए हैं । इस ग्रंथकी दो संस्कृत टीकायें और एक भाषाटीका इसतरह तीन टीकायें मिलती हैं उनमेंसे एक आत्मख्याति नामकी संस्कृत टीका अमृतचंद्राचार्यकृत है, दूसरी तात्पर्यवृत्ति संस्कृत टीका जयसेनाचार्यकी है, तीसरी भाषाटीका पं० जयचंद्रजीकृत है वह आजकलकी प्रचलित भाषामें अन्वय सहित परिवर्तित कीगई है । पहले जैपुरी भाषामें छपीथी । इन तीनों टीकाओंका सर्व साधारणमें प्रचार होनेके लिये मूल्य भी लागतके लग भग ४) चार रुपये जिल्द सहित रक्खा गया है और गाथासूची विषयसूची भी साथमें लगादी गई है जिससे कि पाठकोंको सुभीता हो । इसका उद्धार श्रीरायचंद्रजीद्वारा स्थापित परमश्रुतप्रभावक मंडलकी तरफसे हुआ है अतः उनकार्य कर्ताओंको कोटिशः धन्यवाद देता हूं। तथा श्रीमान् सेठ भैरूंदानजी लाडनूं निवासीने जो ५० पचास रुपये इसकी सहायतार्थ भेजे हैं इसलिये उनको भी शतशः धन्यवाद है। अंतमें यह प्रार्थना है कि यदि प्रमादसे, दृष्टिदोषसे कहींपर अशुद्धियां रह गई हों तो पाठकगण मेरे ऊपर क्षमा करके शुद्ध करते हुए पढ़ें क्योंकि अल्पबुद्धिसे अशुद्धियोंका रहजाना संभव है । इसतरह धन्यवादपूर्वक प्रार्थना करता हुआ इस प्रस्तावनाको समाप्त करता हूं। अलं विज्ञेषु । ___ जैनग्रंथउद्धारककार्यालय ) जैनसमाजका सेवकखत्तरगली हौदावाड़ी पं० मनोहरलाल पो० गिरगांव-बंबई. . पाढम ( मैंनपुरी ) निवासी माघवदि ६ वी० सं० २४४५ * इति प्रस्तावना *-..
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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